पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५०१

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"शान्त । शीतल मृत्यु की-सी शून्यता, और उसका वाग्जाल से भरा विज्ञापन में बहुत सुन चुका हूँ। मैं जो पूछ रहा हूँ, उसे बताओ।" "आओ उपासक ! तुम बैठ कर अपने मन को निरुद्वेग बना लो । मैं तुम्हे निर्वाण का सन्देश मुनाऊंगा।" "मैं निर्वाण में विश्वास नहीं करता।" "ठीक है, यौवन-काल में तुम निर्वाण को व्यर्थ की वस्तु समझ सकते हो, परन्तु वह चरम लक्ष्य है युवक ।" "ठहरो भिक्षु, हम पुनर्जन्मवादी हैं। निर्वाण यदि मानव-जीवन के लिए आवश्यक हो होगा, तो उसे किसी अगले जन्म मे खोज लूंगा ? जब जीवन व्यर्थ सिद्ध हो जायगा । ओह ! तुम्हारे इस कुहर मे मनुष्य अपने जीवन को भी नहीं प्राप्त कर रहा है । न जाने कब इस कुक्कुटाराम को प्राचीर गिरेगी और वन्दिनी मानवता मुक्त होगी।" "शान्त हो, तुम कितने पापमति हो ?" "भिक्षु ! तुम्हारा पुण्य न जाने कब धोखे मे पाप बन गया है । मानवजीवन की चैतन्य ज्वाला की उपयोगिता निर्वाण मे वुझ जाने मे नही है।" अग्निमित्र ने व्यग से हंसकर कहा । वह धोड पर चढने के लिए उसकी ओर बढा और भिक्षु ने मन-ही-मन सोचा--"क्या यह कोई राजकर्मचारी तो नही है ?" वही धर्म-महामान को इरावती को निकालने का समाचार देकर आया था । तव उसने कहा--"यदि स्थविर से मिलना आवश्यक हो, तो तुम भीतर जा सकते हो।" ___किन्तु अग्निमित्र उत्तेजित, क्षुब्ध और आहत-सा हो रहा था । उसने घोडे पर बैठ कर एंड लगाई । वह गगाधर मन्दिर की ओर चल पड़ा। नगर के प्रान्त कुजा मे से सांय-सांय का शब्द निकलने लगा था। अग्निमित्र धीरे-धीरे चला जा रहा था । निर्जीव-सा वह जव मन्दिर के समीप पहुँचा. तब उसने देखा कि कालिन्दी परिचारिका-वेश में खडी है । उसका मुंह गगा की ओर था । किसी भावना मे तल्लीन-सी वह सुपचाप गगा की धारा को देख रही थी। उस प्रवाह पर सन्ध्या अपनी गम्भीर छाया डाल रही थी। फिर भी प्रगतिशील जलपच कूलो की हरियाली अपने वक्षस्थल पर आन्दोलित करता हआ, तट के विरल शब्दो को प्रतिध्वनित करता चला जा रहा था। अग्निमित्र भी उसी एकान्त चित्र को बिगडने देना नहीं चाहता था। वह धीरे-धीरे अश्व से उतर सभामण्डप के समीप पहुँचा। कालिन्दी की तन्मयता भग न हई। फिर न जाने क्या हुआ कि उसने अपने विचारो का सहसा अन्त का ना इरावती : ४८३