पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५०८

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घर जा रहा हूँ। हुआ क्या ?"-कहकर उत्तर की प्रतीक्षा मे व्याकुल धनदत्त, उसे देखने लगा। "धनदत्त के तीन भूगर्भ सोने से भरे हैं। मैं उस पर प्रहरी था, किन्तु जब स्वामिनी मणिमाला ही अपने एक विश्वासी मित्र के साथ वाहर चली गई तो फिर मैं प्राण देने के लिए क्यो रहूँ ? मुना है, यवन लोग राज्य करने नहीं आ रहे है, उन्हे तो कुसुमपुर को लूटना है। फिर मैं क्यो यहाँ रहूँ ? जाता है। गाँव मे बैठकर धर्मसूत्र का पाठ करूंगा"-कह कर युवक चलने को उद्यत हुआ, तो उसे रोक कर धनदत्त ने कहा___ "भला उसका विश्वासी मित्र कौन है, यह तो बतात जाओ।" "एक आजीवक, जिसे स्वय धनदत्त ने भेजा था। वह बात-बात में कहा करता है 'मनुष्य कुछ कर नही सकता।' बस उसी के साथ मणिमाला अपना ऊपरी विभव लेकर चली गई। अच्छा मुझे छुट्टी दो।" "सुनो जी तुम मिथ्या कह रहे हो। धनदत्त ऐसा मूर्ख नहीं जो अपनी स्त्री के लिए एक विश्वासी मित्र भेज दे । वह तो कोई राक्षस होगा जी, मणिमालाजैसी साध्वी को बहका ले गया है।" "ना, ना, ना, वह तपस्वी । तीर्थक । बडी-बडी जटा । त्यागी । भला वह पिशाच होगा।" कहता हुआ युवक चला गया। धनदत्त ने पूरे बल से झकझोर कर चन्दन से कहा । -"चन्दन | तू अभी साता ही रहेगा ? अरे चल भी घर की क्या दशा है देखू तो ?" चन्दन आँख खोल कर बैठ गया। उसने कहा-"मुझे तो नीद आ रही है। वह सामने चैत्य है, वहीं जा कर सो रहूँ । कल प्रभात मे, मगल-वेला मे घर पहुँच जाऊंगा।" इतने में एक आजीवक उसी स्थान पर आकर चन्दन से पूछने लगा-"धर्मशासा कितनी दूर है, उपासक ।" धनदत्त कुढ़ रहा था। उसने कहा-"धर्मशाला पूछते हैं आप ? समूचा मगध धर्मशाला ही तो है। जहाँ चाहिए रहिए। पूछना क्या है, यही सुन कर तो सुदूर यवन-देश से बहुत-से अतिथि आ गये हैं।" “मैं आपकी बात समझ नही सका।" "आश्चर्य । इतनी छोटी-सी बात और इस दार्शनिक मस्तिष्क मे नही आई।" "नही भी आ सकती है । होगी वैसी बात ही, मुझे तो धर्मशाला चाहिए, न होगा तो इसी सामने वाले चैत्य-वृक्ष के नीचे पड रहूँगा।" "पड रहिए । मैं पूछता हूं कि मगध ही ऐसा अभागा देश है क्या, जहाँ ४६० . प्रसाद वाङ्मय