पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५१५

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आर्पण नही । मुझे क्षमा करो, हो यदि शक्ति हो तो कोई प्रबन्ध करो, मैं इस बन्दीगृह से छूट जाऊँ।" "तुम ऐसी बात न कहो । यह सब तुम्हारा ही है । तुम्हारी आराधना की वस्त है, इरावती ! और मैं मगध का सम्राट् बृहस्पतिमित्र, तुम्हारा अनुचर हूँ।" -कहकर उठते हुए उसने इरावती का हाथ पकड़ना चाहा, किन्तु वह झटके में दूर निकल गई। वृहस्पति भावातुर होकर उसके समीप पहुंचा। उन्माद जैसे उद्वेलित हो रहा था ! और इरावती ! वह तो चोट सहते-सहते कायरता से परे हो गई थी। उसने कहा "जाप सम्राट् हैं | तब भी मैं अपने को मुरक्षित नही समझती ! आपको नही मालूम कि मैं आरम्भ की देवदासी हूँ। फिर...ओह अधकार की, शून्य की उपासिका भिक्षुणी ! मुझे काम सुख की प्रवचना मे फंसाना धर्म होगा ?" ___ "इरावती ! मैं अपने को समझ नही सका था। तुम्हारा नृत्य देखकर मैं उन्मत्त हो उठा था। मैंने समझा, यह कला नही, विष की वटिया है ! इसमे कितने ही मर जायगे। किन्तु वह मेरा ढोग था, पहले मैं 'हो मरा। और अब दूसरा उपाय नही । चारो ओर विपत्ति की आंधी है। राज्य पर दोनो ओर से आक्रमण } पर मैं क्या क्षण-भर स्वस्थ रह कर वह सब सोच सकता है। इरावती! विहार में भेजकर भी मैं तुमको भूल नही सका हूँ। मेरे हृदय की ज्वाला तुम्ही बुझा सकती हो। आओ सुन्दरी !" --कहकर वह कामातुर सम्राट् आलिंगन करने के लिए बढ़ा। चिल्लाकर इरावती पीछे हटी, गिरी और मूच्छित हो गई। ठीक उसी समय "क्या है ?" कहती हुई कालिन्दी वहाँ आकर खडी हो गई । कालिन्दी के चरणो मे अलक्रक और नूपुर-राग और संगीत बिखेर रहे थे। काशी का बना, स्वर्ण-तारो से खचित नीला लहंगा, जिसके ऊपर मेखला की सतलड़ी विशृङ्खल हो रही थी। मणि-जटित, कचुक-पट्ट उभडे हुए वक्ष-स्थल पर पीछे बंधा था। मरकत का हार अपनी हरियाली को छाया उस कम्बु-कण्ठ पर डाल रहा था, जिसके दोनो ओर दो बडे-बडे मोती लटक रहे थे। अधरों पर ताम्बूल राग खिला पडता था । अपाग मे नीलाजन की रेखा, घंघराली वेणी के ऊपर एक महीन उत्तरीय ! एक हाथ मे कुसुमस्तवक, दूसरा कुज के द्वार पर। मादन चित्र ! सम्राट् जैसे अप्रतिभ हो रहे थे । 'यह रूप ।' मेरे ही अन्त.पुर मे कालिन्दी की दुर्बल काया उसके लावण्य मे वृद्धि कर रही थी। वैदूर्य के ककण से किरणे निकल रही थी । कालिन्दी अपने नील वसन में आकाश मे चांदनी-सी इरावती : ४६७ ३२