पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५२८

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कालिन्दी ने अवगुण्ठन तनिक-सा टेढ़ा दिया और उसी के भीतर से मद स्वर में कहा-"चला वहन ! बादल तो आज गम्भीर होन लगे हैं। अच्छा किया तुमन हम लागो को निमन्तित कर लिया । नही तो .." मणिमाला कुछ चमकती हुई-सी घूमी और इरावती के साथ कालिन्दो तथा ब्रह्मवारी को लिये वह चल पडी । युवक कुछ-कुछ विस्मित-सा उन्ह ही देख रहा था । सहमा कालिन्दो ने कहा--"अरे ला, मैं तो तुम्हारे कहन से पल पड़ी। अभी तो धेष्ठि से अच्छा चला-फिर आ जाऊंगी, अभी तो यही हूँ।" कालिन्दी जैस अपने का अधिक बड़ी-बड़ी रेखाओ से उस वातावरण म अक्ति कर देना चाहती है। यह हिलकोर उठाती हुई चली गई। युवक ने जैसे ध्यान से देखा, उसने मन-ही-मन पहा-'वे ही दोना होगी। किन्तु साथ वाली तो नहीं मालूम हाती, जिसको वहाँ राजगृह म मैंने देखा था । अवगुण्ठन से मेरी दृष्टि को चोषा नहीं दिया जा सकता । वह नर्तकी थी, उसके एक-एक अग कह रहे थे कि नृत्यकला के लिए उनका निर्माण हुआ था। मैं गधर्व विद्या को जानता हूँ। वह उच्चकोटि को नर्तकी थी। किन्तु यह तो जैसे किसी अत पुर को रमणी है। तो भी उसके हीरो के आभूषण अद्भुत थे ।' .धनदत्त के आ जाने से युवक के विचारो मे वाधा पडी। उसने एकाग्र मन से मजूपा से निकलते हुए हीरे के आभूषणो को छौटना आरम्भ किया। सहसा चौये प्रहर का मद दिवालाक-जो रत्ना के लिए अधिक उपयुक्त हाता है, और भी मद, क्रमश मलिन हो चला। बालको के झुण्ड आकाश मे दौडन लगे । सूर्यास्त मे अभी कुछ विलम्ब था, किन्तु अधकार इतना बढा कि दीपक के बिना काम नहीं चल सकता। हताश होकर युवक ने कहा-"बस इस समय तो रहने दीजिए, इन छटे आभूपणो को अलग रख लीजिए । मैं कल फिर आऊंगा। मुझे आज ही राजगृह लोट जाना चाहिए।" पणिक बुद्धि । ग्राहक हाथ से निकल जाय, यह धनदत्त कैसे सहन कर लेता । उसने कहा-"क्षमा कीजिए ता मैं कुछ कहूँ ।' "कहिए और मेर रथ को ठीक कर शीघ्र बुलवाइए।" "कदाचिद य रत्न कल आप न ले सकेगे। क्योकि आप देखते है कि वे अन्त पुरिकाएं भी इन्ही के लिए जाई है। राजकीय अवरोध की य स्त्रियां हैं। उनकी बात कैसे टाल सकूँगा" धनदत्त ने एक सांस मे कहने को तो कह डाला, परन्तु भीतर ही-भीतर भयभीत हो रहा था । उधर युवक की भवे कुछ चढी और कुछ उतरी। मुंह कुछ तमतमाया, फिर भी जैस उसने अपने को संभाल लिया । और कहा ५१०: प्रसाद वाङ्मय