पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/७४

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AC जब हरद्वार से श्राचन्द्र विशाग पा लिया र गय और छ महान बाद एक पुष उत्पन्न हुआ, तभी स विशारा व प्रति उनको घृणा बढ़ गई । व अपन भाव, ममाज म ता प्रस्ट नही कर मर पर मन म एर दगर पड़ गइ । बहुत माचन पर श्रीचन्द्र न यही स्थिर पिया कि विशारा राशी जागर अपनी जारज-मतान साथ रह और उसक सच क लिए वह कुछ मजा करें। पुत्र पामर पिशारी पति स चित्त हुई आर वह वाया र एन मुविस्तृत गृह म रहन नगी । अमृतमर में यह प्रसिद्ध किया गया कि यहां मां-बेटा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। पीचन्द्र अपन कार-बार म लग गय--वभव का परदा वहत माटा हाता है। किशोरी भी दिन अच्छी तरह बीतन लग । दवनिरजन भी पभा-कभी काशी आ जात । और उन दिना विशारीयो नई सहलियां भी इट्टी हा जाता। वावाजो की काशी म वडी धूम थी । प्राय विशोरी क ही पर पर भण्डारा हाता । बडी मुख्याति पेल चनी । विशारी का प्रतिष्ठा बढ़ी। वह काशी की एक भद्र महिला गिनी जान लगी। ठाकुरजी की सवा बडे ठाट स होतो-धन की कमी न थी, निरजन और श्रीचन्द्र दोना ही रुपय भेजत रहत । किशारी क ठाकुरजी जिस कमर में रहत थ, उसक आग दालान था सगममर को चौकी पर स्वामी देवनिरजन बैठत । चिक लगा दी जाती । भक्त महिलाआ का भी ममाराह हाता । कीतन, उपासना और गीत की धूम मच जाती। उस समय निरजन सचमुच भक्त बन जाता। उमका अद्वैत ज्ञान उस निस्सार प्रतीत होता, क्याकि भक्ति म भगवान् का अवलम्बन रहता है। सासारिक सव जापदा विपदाआ के लिए कच्च ज्ञानी का अपन ही ऊपर निर्भर करन म बडा कप्ट हाता है । इसलिए गृहस्था क मुख म फंसे हुए निरजन को बाध्य हाकर भक्त बनना पडा । आभूपणा स लगी हुई वैभव-मूर्ति क सामने उसका कामना४४ प्रसाद वाङ्मय