पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/७६

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विजय उस युवक के कमरे में बैठा हुआ विखरे हुए सामाना का दख रहा था । सहसा उसने पूछा-आप यहाँ कितने दिना से हैं? थोडे ही दिन हुए हैं? यह किस लिपि का लेख है ? मैंने पाली का अध्ययन किया है। इतने में नौकर ने चाय की प्याली सामन रख दी। इम क्षणिक घटना ने दोना को विद्यालय की मित्रता के पार्श्व म बांध दिया, परन्तु विजय बडी उत्सुकता से युवक के मुख की आर देख रहा था, उसकी रहस्यपूण उदासीन मुखकान्ति विजय के अध्ययन की वस्तु बन रही थी। चोट तो नही लगी? जब जाकर युवक न पृछा । कृतज्ञ होते हुए विजय ने कहा-आपन ठीव ममय पर महायता की, नही तो आज अग-भग होना निश्चित था। वाह, इस साधारण आतक म ही तुम अपने पा नहीं सम्हाल सक्ते थे, अच्छे सवार हो । युवक हंसने लगा। किस शुभनाम से आपका स्मरण करूंगा? तुम भी विचित्र जीव हो स्मरण करन की जावश्यकता क्या मैं तो प्रतिदिन तुमसे मिल मकता है-कहकर युवक जोर मे हमने लगा। विजय उसके स्वच्छन्द व्यवहार और स्वतन्त्र आचरण को चकित होकर देख रहा था। उसके मन म इस युवक के प्रति कारण श्रद्धा उत्पन्न हुई । उसकी मित्रता के लिए वह चचन हो उठा । उसने पूछा-आपके यहां आने में कोई बाधा तो नही? युवक ने कहा-मगलदेव की कोठरी म आने के लिए किसी को भी रोकटोक नही, फिर तुम तो आज से मेरे अभिन्न हो गये हो । समय हो गया था । होस्टल से निकलकर दोना विद्यालय की ओर चले । भिन्न-भिन्न कक्षाओ मे पढते हुए भी दानो का एक बार मिल जाना अनिवार्य हाता । विद्यालय के मैदान म हरी हरी दूब पर आमन-मामने लेटे हुए दोनो बडी देर तक प्राय बाते किया करते । मगलदेव कुछ कहता था और विजय बडी उत्सुकता से सुनते हुए अपना आदश सकलन करता। _____ कभी कभी होस्टल से मगलदेव विजय के घर पर जाता, वहां उसे घर कामा मुख मिलता । स्नेह-मरल स्नेह ने उन दोनो के जीवन मे गांठ दे दी। किशोरी के यहाँ शरपूर्णिमा का शृगार था । ठाकुरजी चन्द्रिका म रत्नआभूषणो मे मुशोभित हाकर शृगार-विग्रह बने थे। चमेली के फूला की बहार ४६ प्रसाद वाङमय