पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/९२

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बहूजी की जैसी आज्ञा होगी । इस बेबसी के उत्तर पर विजय के मन मे बडी सहानुभूति उत्पन्न हुई । उसने कहा-नही यमुना, तुम्हारे बिना तो मेरा.. -कहते-कहते फिर रुककर कहा-~प्रवन्ध ही न हो सकेगा-जलपान, पान, स्नान, सब अपूर्ण रहेगा। ___तो, मैं चलूंगी-कहकर यमुना कुज से बाहर निकल आई। वह भीतर जाने लगी। विजय ने कहा-धजरा कबका ही घाट पर आ गया होगा, हम लोग चलते है । मां को लिवाकर तुरन्त आओ। भागीरथी के निर्मल जल पर प्रभात का शीतल पवन बालको के समान खेल रहा था- छोटी-छोटी लहरियो के घरौदे बनते-बिगडते थे। उस पार के वृक्षो की श्रेणी के ऊपर एक भारी चमकीला और पीला विम्व था । रेत मे उसकी पीली छाया और जल मे मुनहला रग, उडते हुए पक्षियो के झुण्ड से आक्रान्त हो जाता था। यमुना बजरे की खिडकी मे से एकटक इस दृश्य को देख रही थी और छत पर से मगलदेव उसकी लम्बी उँगलियो से धारा का कटना देख रहा था। डांडो का छप-छप शब्द बजरे की गति मे ताल दे रहा था। थोडी दी देर में विजय माझी को हटाकर पतवार थामकर जा बैठा । यमुना सामने बैठी हुई डाली मे फूल संवारने लगी, विजय औरो की आँख बचाकर उसे देख लिया करता। बजरा धारा पर वह रहा था। प्रकृति-चितेरी ससार का नया चिह्न बनाने के लिए गगा के ईपत् नील जल म सफेदा मिला रही थी। धूप कडी हो चली थी। मगल ने कहा-भाई विजय | इस नाव की सैर से तो अच्छा होगा कि मुझे उस पार की रेत मे उतार दो। वहा जो दो-चार वृक्ष दिखाई दे रहे हैं, उन्ही की छाया में सिर ठडा कर लूंगा। हम लोगो को भी तो अभी स्नान करना है, चलो वही नाव लगाकर हम लोग भी निवट ले। माझियो ने उधर की ओर नाव खेना आरम्भ किया । नाव रेत से टिक गई । वरसात उतरने पर यह द्वीप बन गया था। अच्छा एकान्त था ! जल भी वहां स्वच्छ था। किशोरी ने कहा-यमुना, चलो हम लोग भी नहा ले । ____ आप लोग जा जाय, तब मैं जाऊंगी-यमुना ने कहा । किशोरी उसकी मचेष्टता पर प्रसन हा गई । वह अपनी दो सहेलियो के साथ वजरे से उतर गई। मगलदेव पहले ही कूद पड़ा था । विजय भी कुछ इधर-उधर करके उतरा । द्वीप के विस्तृत किनारो पर वे लोग फेल गये । किशोरी और उसकी सहेलियाँ, ६२: प्रसाद वाङ्मय