पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१००

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पदि अपनी इस प्रजा-वृन्द का ध्यान हो दुख दूर करने का कुछ उचम करो। हरिश्चन्द्र-हे कौशिक ऋषिवयं ! इसे कर दीजिये क्षमा; और सुव्रता स्वतन्त्रा हो ऋषे ! चरणों में यह राज्य आज उत्सर्ग है विश्वामित्र-अस्तु । सुवते ! कहो कहाँ फिर तुम रही मेरे जाने के बाद ?- सुव्रता-प्रभो! उस ग्राम से लाञ्छित करके देश-निकाला ही मिला, क्योंकि गभिणी थी मैं । इससे घूमती आयी मैं इस आश्रम के पास में। और स्वयं अन्त पुर में दासी बनी वसिष्ठ -धन्य सुव्रते ! साधु सुशीले ! धन्य तू पाया पति, सुत, फिर अपने सौभाग्य से । विश्वामित्र '-करुणा करुणालय जगदीश दयानिधे । सब यों ही आनन्द सहित सुख मे रहे । (सबकी ओर देखकर-) जगन्नियन्ता का यह सच्चा राज्य है मबका ही वह पिता; न देता दुःख है कभी किसी को । उमने देखा सत्य को हरिश्चन्द्र के; जिसने प्रण उद्यत होकर करने मे वलिकमं के। यह जो रोहित को बलि देते तो नही वह बलि लेता, किन्तु मना करता इन्हे । क्योकि अधम है कर आमुरी यह क्रिया यह आर्यपथ है, दुस्तर अपराध है वह प्रकाशमय देव, न देता दु.ख है। अस्तु, मभी तम शक्तिहीन हो हो गये। कहता हूँ उसको सुन लो मब ध्यान से; मस्वर से सब करो स्तवन, उस देव का। तुममें जव हो शक्ति और यह शुन शेफ हो मुक्त तब जान लो यह कार्य पूग होकर फल मिल गया। पूरा किया न पुत्र भी आप, ८४: प्रसाद वाङ्मय