पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१०७

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प्रथम अड्डू नान्दी जयति सच्चिदानन्द जगत है जिसकी लीला। जय शिव, परमानन्द वृत्ति अति करुणाशीला ॥ जयति हृदय नभ चन्द विमल आलोक सहित है। जय जय जय सुखकन्द दोष से सदा रहित है। जिसके पद अरविन्द में सबही की है रित्य नति । जननायक आनन्दमय वह लीलामय प्रभु जयति ॥ पहला दृश्य (कन्नौज-राजभवन-बहवर्मा-राज्यश्री) राज्यश्री-"नाथ ! आज आप चिन्तित क्यों दिखाई देते हैं ?" ग्रहवर्मा-"प्रिये ! मेरा चित्त आज अनायास स्वयं उदासीन हो रहा है। चेष्टा करने पर भी प्रसन्न नहीं हो रहा है। अनेक भावनायें हृदय में उठती हैं जो निर्मूल होने पर भी उसे उद्विग्न किये हैं।" राज्यश्रो-"प्रभो ! आपके ऐसे धीर पुरुषों को जिनका हृदय हिमालय समान अचल और शान्त है, क्या मानसिक व्याधियां हिला या गला सकती हैं। कभी नहीं !" ग्रहवर्मा-"प्रिये ! इस विश्वव्यापी वैभव के आनन्द में यह मेरा हृदय शंकित होकर मुझे दुर्बल बना रहा है।" राज्यश्री-"शंका किस बात की प्रियतम ?" ग्रहवर्मा-"पुण्य भूमि यह कान्यकुब्ज राज्य है, जिसके आगे नन्दन वन मी त्याज्य है। सरल प्रजा उर्वरा भूमि तृणयुक्त है। शीतल जल तटिनी प्रवाह भी मुक्त है। सा राज्यश्री: ९१