पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१०८

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स्वास्थ्य पूर्ण है पवन सघन वन हैं हरे, फुल्ल कुसुम फल स्वादु रहे जिसमें भरे । सबसे यह आनन्द बड़ा है प्रियतमे ! तुमसा निर्मल-कुसुम भी मिला है हमें ॥ हृदय उत्स के पूत धार से धो गया-- जिसका स्वतः पराग गन्ध भी बढ़ गया । अविश्वास का कीट न जिसके पास है, जिस नलिनी का सहज स्वभाव विकास है ।" राज्यश्री-(संकुचित होती हुई) हां हां फिर शंका किस बात की है ? ग्रहवर्मा-(आकाश ओर गम्भीर स्वर से)- "घोर नील यह विस्तृत परमाकाश है, महाज्योति जिसका प्रच्छन्न प्रकाश है। उसका ही यह धूम पुंज है भर रहा, तारागण उसके स्फुलिंग जैसे यहां ॥ यह अपने अन्तर में रखता है नही, एक भाव से, इसकी है स्थिर गति यही । जब बसन्त में विधु का पूर्ण विकाश हो, नदी कूल में कुसुमित कुंज विकाश हो । खिले कुमुदिनी देख वदन विधु का अहो, भावान्तर इसका तब देखो तो कहो। मलिन धूलि परिपूरित फिर अन्तर हुआ, मकल ग्रीष्म का ताप अंग पर चढ़ गया ॥ घोर प्रभंजन क्षुब्ध हृदय इसका हुआ, भीषण यह आकाश क्रोध कुछ बढ़ गया। उद्वेलित हो सिन्धु तरंगायित सजल जलद का जाल बहुत विस्तृत हुआ। छिपे चन्द्र, तारा का नही प्रकाश है, कहां कुमुदिनी का फिर पूर्ण विकाश है !" राज्यश्री -"बम नाथ ! बस, क्यों हृदय को दुर्बल बना रहे हो।" ग्रहवर्मा-"प्रिये ! क्या यह जान बूझ कर बनाया जाता है ? मनुष्य हृदय स्वभाव दुर्बल है। प्रवृत्तियों बड़ी राज्यशक्तियों की तरह इसे घेरे रहती हैं, जब अवसर मिला उस छोटे से हृदय राज्य को आत्मसात् कर लेने को प्रस्तुत हो जाती हैं।" ९२: प्रसाद वाङ्मय