पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१०९

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राज्यश्री-"प्रभो ! फिर आत्मबल कोई वस्तु नहीं है ? मैं आपसे विवाद नहीं किया चाहती। पर, यह मेरा निवेदन है कि आप अपने हृदय को प्रसन्न कीजिये । ग्रहवर्मा -"प्रिये ! चित्त प्रसन्न करने के लिये क्षत्रियों को मृगया से बढ़कर दूसरा विनोद नहीं है। इसलिये इच्छा होती है कि सीमा के जंगल में थोड़े दिनों तक इसी तरह चित्त बहलाने का उद्योग करें।" राज्यश्री-"जैसी प्रभु की इच्छा। इस समय तो चल कर विश्राम कीजिये।" ग्रहवर्मा-"चलो चलें।" (दोनों जाते है, पट परिवर्तन) द्वितीय दृश्य (नगर प्रान्त में देवगुप्त वणिक वेश में) देवगुप्त --- मालवराज होकर भी मैं छद्मवेश मे अनेक देश देखता यहां आया। कि दिन मदनमहोत्सव मे जो नेत्रानन्ददायक दृश्य यहां देखने में आया वह क्या कभी भूलने का है । अहा 'राज्य-श्री' वास्तव मे विश्व-राज्य-श्री' है। क्या वह मुझे न मिलेगी अवश्य मिलेगी।" (मधुकर का प्रवेश) मधुकर-"महाराज ! मालव से एक दूत आया है।" देवगुप्त-"उसे शीघ्र बुलालो।" (मधुकर जाता है, दूत के साथ फिर आता है) दूत-"महाराज विजयी हों।" देवगुप्त-कहो क्या समाचार है !" दूत-"महाराज के अनुग्रह से सब मंगल है। मन्त्रिवर ने यह प्रार्थनापत्र श्रीचरणों में भेजा है।" (पत्र देता है) देवगुप्त--(पत्र पढ़ता है)-स्वस्ति श्री इत्यादि महाराज के आज्ञानुमार बीरसेन सेना के साथ निर्दिष्ट स्थान पर प्रेरित हो चुका है। और एक सहस्र सैनिक अनेक वेश में आपके ममीप उपस्थित हैं संकेत पाते ही एकत्र हो जायंगे किन्तु प्रभो ! दास का एक निवेदन है कि बहुत परिणामी होकर कार्य कीजियेगा। शमिति ।" देवगुप्त--"मन्त्री वृद्ध हो गये हैं । (दूत से) श्राम करो।" (पट परिवर्तन) राज्यश्री : ९३