पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/११०

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तृतीय दृश्य (मन्दिर-राज्यश्री सहेलियों के साथ) १. सहेली-"फूल और पूजा की वस्तु प्रस्तुत है। महाराज की मंगल कामना के लिये भगवती की आराधना कीजिये।" (राज्यश्री पूजा करती है) अमला-"महारानी ! पूजन तो हो चुका, अब महलों में पधारिये । राज्यश्री-"चलती हूँ। सखि ! मेरा हृदप कह रहा है कि महाराज का कोई सन्देश आही रहा है। विमला-देवि ! प्रिय जन की उत्कण्ठा में प्रायः ऐसा भ्रम हुआ करता।" (प्रतिहारी का प्रवेश) प्रतिहारी-'स्वामिनी ! कानन एक दूत आया है जो महाराज का कुछ संदेश लाया है। राज्यश्री-"उसे शीघ्र बुलाओ।" (प्रतिहारी का प्रस्थान) विमला-"महारानी का भ्रम सत्य हुआ।" अमला-"सखी ! महारानी का हृदय अपने प्राणनाथ के प्रति बहुत ही स्वच्छ है । देखो, प्रकट न झूठी बात निर्मल मन में हो कभी। सन्मुख ही की वस्तु, प्रतिविम्बित हो मुकुर में । (दूत के साथ प्रतिहारी का प्रवेश) दूत-(प्रणाम करके) “महारानी चिर सौभाग्यवती हों। राज्यश्री-"दूत ! क्या समाचार है ?" दूत-"ईश्वर की कृपा से सब कुशल है। सीमाप्रान्त के कानन में महाराज सुख से मृगया-विनोद में दिवस यापन कर रहे हैं । किन्तु"." राज्यश्री-'कहो कहो । किन्तु क्या ?" दूत-"स्वामिनी ! युद्ध की आशंका है । मालवेश्वर की सीमा हमारी सीमा से मिली हुई है। अकारण उनकी सेना आज कल सीमा पर एकत्र हो रही है। और महाराज को चिढ़ाने के लिये जान बूझकर कुछ धृष्टता की जाती है, इसलिये, महाराज ने आमा भेजी है कि- 'नगर की रक्षा के लिये थोड़ी सना छोड़कर सेनापति कुल चतुरंगिनी सेना लेकर यहां चले आवें ।" राज्यश्री-"दूत । इसी को कहने में तुम विलम्ब करते थे। क्षत्राणी को इससे बढ़कर शुभ समाचार कौन होगा कि-"उसका पति युद्ध के लिये सनद्ध हो रहा है । ९४: प्रसाद वाङ्मय