पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/११२

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पंचम दृश्य (दुर्ग में प्रकोष्ठ । मूच्छित राज्य-श्री। सखियाँ) विमला-"कमला ! महारानी की कैसी अवस्था है ? आज रात को तूही उनके समीप रही।" कमला-"सखी ! क्या कहे, मन्दिर की घटना से अभीतक एकबार भी पूरी चेतना नहीं हुई। प्रलाप उसी तरह है । देख, देख, अब उठी और कुछ कहना ही चाहती हैं।" (राज्यश्री अचेतना में प्रलाप करती है) 'महामङ्गल प्राणनाथ की जय । महामङ्गल" (सो जाती है । मन्त्री का प्रवेश । राज्य-श्री फिर उठती है) राज्यश्री-(भयानक गम्भीर स्वर से) "हम दिया- हाँ हँस दिया। मेरी प्रार्थना पर हंस दिया, मेरी क्या प्रार्थना थी। यही कि "प्राणनाथ की जय हो" तुमने केवल हंस दिया । क्या अनुनित प्रार्थना थी ? मेरी बात क्या हँसने योग्य थी। नही, नही। केवल निर्बल होने से हमी। हँसो और भी हँसो--मेरी प्रार्थना तुम्हारे कर्कश कठोर अट्टहास में विलीन हो गई। हाय ! मेरी प्रार्थना जब मुझे ही नही सुनाई पड़ती-तब दूमरा कौन सुने। केवल कठोर हंसी-कर्कश अट्टहास हाहाहाहा । (मूच्छित होती है) मंत्री-"हाय ! किससे क्या कहे ? महाराज का समाचार कहना तो दूर है, जिसकी आशंका ही से यह दशा है उससे और क्या आशा है ? संसार ! यदि तुझ में मनुष्य न होते तो तू इतना भयंकर न होता। गर्वी मनुष्य, तुझे विमी का दुःख सुनने का, सदुपदेश के सुनने का अवकाश कहाँ है । तेरे कान, जो मोतियों के कुण्डन से बाहर से लदे हुए है भीतर भी चाटुकारों की प्रशमा और संगीत की झनकार मे भरे हैं (राज्यश्री की ओर देखकर) हाय ! कुटिलता ! देख तूने एक मोने के संसार को कैसा मट्टी किया। (प्रतिहारी का प्रवेश) प्रतिहारी-"मन्त्रिवर ! न मालूम क्यों दुर्ग मे बढी भीड एकत्रित हो रही है। प्रजा कह रही है कि--"हम अपने महाराज के लिये रक्त बहावेगे। मन्त्री की आज्ञा मिलनी चाहिये ।" मंत्री-"उन लोगों से कहो कि हम अभी आते है।" (प्रतिहारी का प्रस्थान) ९६ : प्रसाद वाङ्मय