पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/११४

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नहीं, इन हिंस्र पशुओं से भी भयानक मनुष्यों को बदला देना हमारा काम है। जब किसी को मेरी सहानुभूति नहीं है, फिर मैं किसी पर क्यों दया करूँ ?" (भील डाकू का प्रवेश) भील-"सर्दार ! आज तो इम जंगल पे कोई बड़ी सेना डेरा जमाये विकटघोष –“सेना ! वह किधर जायगी ?" भोल--"थानेश्वर के राजा राज्यवर्धन की सेना है, कन्नौज जा रही है।" विकटघोष-"अहा, मै समझ गया। राज्यश्री के पति ग्रहवर्मा को देवगुप्त ने छल से मार डाला और कन्नौज ले लिया। अब राज्यवर्धन ने अपनी भगिनी का प्रतिशोध लेने के लिये विगुप्त पर चढाई की है। हाय | राज्यश्री ! तेरी रूप की ज्वाला अभी ना मेरे हृदय को जला रही है। गंमार का कर्मक्षेत्र मुझे न दिखाई पडता यदि तेरा आलोकमय रूप नेत्रों के मामने न आता। तुम्ही तो इस दीन भिक्षु को भयानक डाकू चना देने की कारण हो । क्षत्रियकुगार होकर क्या मै तुम्हे नही पा सकता था ? मेग जन्म भी तो उच्च क्षत्रिय कुल मे हुआ था ? अच्छा यही तो अवसर है। यदि इग ममय भी हम राज्यश्री को न प्रान कर सके, तो व्यर्थ ही लुटेरा बनने का पाप मर पर लिया। चलो।" (दोनों जाते है) (भण्डि और सैनिक का प्रवेश) भण्डि--"क्यो जी ? अब तो मेरा अनुमान है कि कल हमलोग कन्नौज की मीमा पर पहुंच जायेंगे।" सैनिक-'हमलोग तो आज ही पहुँच गये होते यदि गौड़राज की आशा मे ममय नष्ट न होता।" भण्डि-"आज ही तो नरेन्द्रगुप्त के आने का निश्चय था और इमी कानन का स्थान नियत था फिर अभी तक वे नहीं जाये क्यों ?" सैनिक-"आवे चाहे न आवे । मेरा तो इस अकारण मैत्री से चित्त शंकित होता है । महाराज राज्यवर्धन ने न मालूम क्या ममझा है।' भण्डि “अजी उमने देखा कि थानेश्वर के राज्यवश से मंत्री कर लेने से उसे, और शत्रुओं का डर न रहेगा, और प्रतिष्ठा भी बनी रहेगी।" सैनिक -'अच्छ, अब अपने लोग भी विश्राम के लिये चलें। महाराज यदि मुझे पूछे तो वह देना कि स्कन्दगुप्त अपने शिविर मे है।" भण्डि -"अच्छा।" (दोनों जाते है) . 31 ९८: प्रसाद वाङ्मय