पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१२५

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दिवाकर--"हैं इस कानन में यह, कैसा उत्पात । कोन दुष्ट यह कुकर्म कर रहा है, किस अबला को सता रहा है ? देखू यदि कुछ कर सकू ?" (गाता है) अब भी चेत ले तूं नीच। दुःख परितापित धरा को स्नेहजल से सीच ॥ शीघ्र तृष्णा पाश से नर ! कण्ठ को निज खींच । स्नान कर करुणा मरोवर, धोय ले सब कीच ॥ (विकटघोष का प्रवेश) "करुणामय ! आप कौन है ? इस मरु धरा से हृदय में दया स्रोत आपने कैसे बहाया ? प्रभो, शरणागत हूँ। दीन को दया दान दीजिये। अपने चरणों में शरण दीजिये । मुझे उपदेश देकर सनाथ कीजिये।" दिवाकर--"दुखी जीव, पापों का प्रायश्चित्त पश्चात्ताप और परोपकार में लग जा ! तुझे शान्ति मिलेगी। (विकटघोष चरणों में गिरता है। राज्यश्री का प्रवेश) ज्यश्री--(चरण धर कर) “मुनिवर ! दयाधन ! मुझे इस दुःखमय संसार से बचाइये ! दया कीजिये !" दिवाकर-"भद्रे ! मन्तोष, और विवेक का अनुसरण कर । डर मत !" राज्यश्री-"प्रभो मैं आपके अभय चरणों में स्थान चाहती हूँ ?" दिवाकर-"आश्रम में भिक्षुनी संघ में तुम्हें स्थान मिलेगा; चलो।" (प्रस्थान) चतुर्थ दृश्य (स्कन्धावार पजाब में हर्षवर्धन । सभासद) हर्षवर्धन-"सिंहनाद, कुटिल संसार में सरलता भी बुरी वस्तु है । इन पामरों के कूट चक्रों से हृदय ज्वालामुखी बन रहा है। क्रोध चाहता है कि इस कुटिल क्रूर राज्यमण्डली को प्रलय के समुद्र मे बहा दे। ग्रहवर्मा का शरीरान्त हुआ। दुष्ट नरेन्द्र, भाई राज्यवर्धन से मिला और अब सुनने में आता है कि उसी ने छल से राज्यवर्द्धन की हत्या भी की। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने उसको मार डाला और भाई का बदला लिया। किन्तु मुझे अब तक शान्ति नही। पञ्जाब के तथा उत्तरीय भारत के विद्रोहियों को तो हमने दमन किया। पर जब तक समस्त आर्यावर्त के क्षुद्र राज्यों का नाश करके एक साम्राज्य में न मिलाऊँगा, तब तक भारत के सरल जीवों का निस्तार नहीं।" राज्यश्री : १०९