पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१३७

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राज्यश्री प्रथम अंक प्रथम दृश्य [नदी-तट का उपवन] शान्तिदेव-सुरमा, अभी विलम्ब है । सुरमा-क्या विलम्ब है प्रियतम-देवो मै मल्लिका का क्षुप सींचती हूं, यह भी मुझे वञ्चित नही रखता–छाया, सुगन्ध और फूलों से जीविका देता है, किन्तु तुम ! कितने निष्ठुर हो ! तुम्हारी आँखो मैं दया का संकेत भी नही ! शान्निदेव-मैं भिक्षु हूँ सुरमा ! मंसार ने मुझे एक ओर ढकेल दिया है-मैं अभी उसी ढालुवें से ढुलक रहा हूँ। रुकने का, मोचने का, अवसर नही । मुझे तुम्हारी बात, तुम्हारा स्नेह, एक विडम्बना-एक धोखा-सा जान पड़ता। सुरमा--विश्वास करो ! मै आजीवन किसी राजा की विलास-मालिका बनाती रहूँ-ऐसा मेरा अदृष्ट कहे, तो भी मै मान लेने में असमर्थ हूँ । मेरी प्राणों की भूख, आंखों की प्यास, तुम न मिटाओगे ? शान्तिदेव-यह तो हुई तुम्हारी बात, परन्तु मैं क्या चाहता हूं-यह मैं अभी स्वयं नही समझ सका हूँ। सुरमा-मै समझ गयी, तुम फूल लेने आरार नित्य बाते बना जाते हो । मुझे एक साधारण पुष्पवाली समझते हो न ! और तुम ठहरे कुलीन क्षत्रिय, तिस पर भिक्षु ! शान्तिदेव-ठहरो सुरमा ! जीवन की दौड़ बहुत लम्बी है, उसकी अभिलाषा के लिए इतना चंचल न होना चाहिये । सुरमा--तुम निर्दय हो, मेरी आराधना का मूल्य नही जानते-भिक्षु ! तुम्हारा धर्म उसके सामने- शान्तिदेव-उतावली न हो सुरमा ! परीक्षा देने जा रहा हूँ; साथ ही भाग्य की परीक्षा भी लूंगा ! महारानी राज्यश्री एक दिन भिक्षुओं को दान देंगी, मैं भी देखूगा भाग्य मुझे किस ओर खीचता है। फिर मैं तुमसे मिलूंगा। (प्रस्थान) राज्यत्री : १२१