पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१३८

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[वेवगृप्त का प्रवेश] देवगुप्त-वाह ! जैसा सुन्दर यह उपवन है, वैसी ही मालिन ! क्यों जी, तुम्हारा नाम सुनूं तो! सुरमा-(सलज्ज) मुझे लोग सुरमा कहते है। देवगुप्ता -नाम तो बडा सुरुचिपूर्ण है ! भला, मै तुम्हारे इस उपवन मे कुछ दिन ठहर सकता हूँ? [सुरमा देवगुप्त को देखती है]] देवगुप्त -तुम तो बोलती भी नही हो। यह तुम्हारा मल्लिका का बाल- व्यजन तो अभी अधबना ही है-धन्य तुम्हारी शिल्प-कुशलता! सुरमा-मैं अकेली इम उपवन गे रहती हैं, आप-एक विदेशी ! देवगुप्त -तो इसमे क्या ? मब अकेले ही तो मसार-पथ मे निकलते है, किसी का मिल जाना, यह तो उसके भाग्य की बात है । देखो मुझे यदि तुम न मिल जाती, तो कौन आश्रय देता ? (हंसता है) सुरमा- (स्वगत)-यह कैमा विलक्षण पुरुष है ? उत्तर देते भी नही बनता, क्या करूं? - देवगुप्त- तो मै तुम्हारे इस उद्यान मे दो घडी तो विश्राम अवश्य करूंगा। फिर चाहे निकाल देना। सुरमा अच्छी बात है । मैं अपनी पुष्प-रचना लेकर राज-मन्दिर जाती हूँ, तब तक आप यहाँ विश्राम कर लीजिये। देवगुप्त -तो क्या राज-मन्दिर में भी जाती हो? सुरमा-हाँ । वही से तो मेरी जीविका ? देवगुप्त-अच्छी बात है सुरमा, तुम हो आओ, मै तब तक थकान मिटाता है । [एक वृक्ष के नीचे बैठ जाता है-सुरमा माला बनाती हुई उसे कनखियों से देखती जाती है] देवगुप्त-वाह । कितना गुरभित गमीर है। प्राण नृप्त हो गया, मस्तिष्क हमने लगा और ग्लानि का तो नही पता नहो। मुरमा, तुम्हारा स्पान कितना सुरम्य है । -(देखकर)-अरे तुम्हाग वाल-व्यजन भी बन गया, कितना सुन्दर है ! उन कोमल हाथो को चूम लेने का मन करता है-जिन्होने इमे बनाया। सुरमा-(हंसती हुई) आप तो बड़े धृष्ट हे""तो अव मै जाती हूँ। (अपनी पुष्प-रचना लेकर इठलाती हुई जाती है) [दृश्यान्तर] १२२ : प्रसाद वाङ्मय