पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१३९

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द्वितीय दृश्य [कान्यकुब्ज के राजमन्दिर का एक प्रकोष्ठ] ग्रहवर्मा -(राज्यश्री के साथ चिन्तित भाव से प्रवेश करते हुए)-प्रिये, मेरा चित्त आज न जाने क्यो उदासीन हो रहा है, चेष्टा करके भी मैं उसे प्रसन्न नही कर पाता हूं। अनेक भावनाएं हदय मे उठ रही है, जो निर्वल होने पर भी उद्विग्न कर रही है। राज्यश्री-नाथ, आप जैसे धीर पुरुषो को-जिनका हृदय हिमालय के समान अचल और शात है - वया मानसिक व्याधियाँ हिला या गला सकती है ? कभी नही। ग्रहवर्मा-इम विश्वव्यापी वैभव के आनन्द मे यह मेरा हृदय मशंक होकर मुझे आज दुर्बल बना रहा है। राज्यश्री-शका किस नात की, प्रियतम ? ग्रहवर्मा-पुण्यभूमि महोदय का मिहासन, सरल और अनुरक्त प्रजा, सुजला- शस्य-श्यामला उर्वरा भूमि, स्वास्थ्य वा वातावरण और सबसे सुन्दर उत्तरापथ का कुसुम-यह पवित्र मुख - मेरा है, अपना है, फिर भी... राज्यश्री-(संकुचित होती हुई) -तब भी, क्या? ग्रहवर्मा -तब भी यही nि यह मृद्र-व्यापी नील आकाश कितने कुतूहलों का, परिवर्तनो का क्रीडा-क्षेत्र है। यह आवरण है भी कितना काला-कितना... राज्यश्री -बस नाथ, कम । वयो हृदय को दुर्बल बनाकर अनुशोचन बढा रहे हो ! ग्रहवर्मा मनुष्य-हृदय स्वभाव-दुर्वल है। प्रवृत्तियाँ बह-वडी राजशक्तियो के मदृश इसे घेरे रहती है । अवसर मिला कि इस छोटे-से हृदय-राज्य को आत्मसात् कर लेने को प्रस्तुत हो जाती है । राज्यश्री-व्यर्थ चिन्ता | हृदय को प्रसन्न कीजिये। सम्भव है कि मंगीत मे मन लग जाय, बुलाऊँ गानेवालियो को ? ग्रहवर्मा -नही प्रिये क्षत्रियो का विनोद तो मृगया है । इच्छा होती है कि सीमाप्रान्त के जगल मे कुछ दिनो तक मन बहलाऊं। राज्यश्री जैमी इच्छा, मुझे भी आज भिक्षुओ को दान देना है। ग्रहवर्मा-अच्छी बात है। [राज्यश्री सहित प्रस्थान/दृश्यान्तर] राज्यश्री : १२३