पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४२

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चतुर्थ दृश्य [राजमन्दिर के एक प्रकोष्ठ में चिन्तामग्न मन्त्री] दूत-(प्रवेश करके)--आर्य ! भयानक समाचार है ! मन्त्री क्या है ? दूत -सीमाप्रान्त के कानन मे महाराज तो सुख-मृगया-विनोद में दिवस-यापन कर रहे है; किन्तु....... मन्त्री-कहो-कहो, किन्तु क्या? दूत-युद्ध की आशंका है | मालवेश्वर की सीमा हमारी सीमा से मिली हुई है अकारण उनकी सेना आजकल सीमा पर एकत्र होने लगी है और महाराज को चिढ़ाने के लिए जान-बूझ कर कुछ धृष्टता की जा रही है । इमलिए महाराज ने कहा है कि सेनापति को सेना के साथ शीघ्र यहाँ आ जाना चाहिये । मन्त्री--किन्तु जैसे ममाचार नगर के मुझे मिले है, उससे तो मै स्वयं सशंक हो रहा हूं। मुझे कान्यकुब्ज के भीतर- नागरिको मे-कुछ मन्देहजनक व्यक्ति होने का पता चला है-(कुछ सोचकर) अच्छा, तुम महाराज से कहना कि मे मैन्य भेजता हूँ, पर आद्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है। मै नगर-रक्षा के लिए थोड़ी सेना रख लूंगा, क्योंकि स्थाण्वीश्वर से सहायता मिलने मे अभी विलम्ब होगा। मैं वहाँ भी सन्देश भेजता हूँ। [दूत का प्रस्थान] तो अब महारानी को भी समाचार देना चाहिये । अब स्मरण आया-आज तो वह दान-पर्व मे लगी होगी। तो चलूं वही । सेना भी तो भेजनी है। जग भी कैसी भीषण व्याधि है ! अहा हम लोग इसे नित्य देखते है, पर तथागत के समान किसने इस दृश्य से लाभ उठाया? इतने दिन काम किया, अव भी तृष्णा न छूटी ! चलं-मुझे पहुंचने में भी तो विलम्ब होगा। पहले सेनापति मे मिलूं या महारानी मे ? --(सोचकर)-पहले सेनापनि से- यही ठीक होगा। [प्रस्थान दृश्यान्तर] ! पंचम दृश्य [देव-मंदिर में राज्यश्री, दान के उपकरण और भिक्षु उपस्थित हैं] राज्यश्री-(भिक्षुओं को वस्त्र और धन देती है-शान्तिदेव सामने आता है)-तुम्हाग शुभ-नाम भिक्षु ? शान्तिदेव-जय हो ! मेरा नाम गान्तिभिक्ष"" १२६ : प्रसाद वाङ्मय