पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४३

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। 1 [रुककर राज्यश्री की ओर देखने लगता है] राज्यश्री-भिक्षु, तुमने प्रवज्या ग्रहण कर ली है, किन्तु तुम्हारा हृदय अभी शान्तिदेव-कल्याणी ! मै, मेरा अपराध- राज्यश्री-हां तुम | भिक्षु | तुम्हे शील-सम्पदा नही मिली, जो सर्व-प्रथम मिलनी चाहिये। शान्तिदेव- मै सब ओर से दरिद्र हूँ देवि !-(स्वगत)-विश्व मे इतनी विभूति ! और मै -सिर ऊँचा करके अत्यन्त ऊँचाई की ओर देखता हुआ केवल उलटा होकर गिर जाता हूँ-चढने की कौन कहे । राज्यश्री -क्या सोचते हो, भिक्षु ! शान्तिदेव-केवल अपनी क्षुद्रता- राज्यश्री-तुम सयत करो अपने मन को भिक्षु । श्लाघा और आकाक्षा का पथ तुम बहुत पहले छोड चुके हो । यदि तुम्हारी कोई अत्यन्त आवश्यकता हो, तो मैं पूरी कर सकती हूँ, निश्चिन्त उपासना की व्यवस्था करा दे सकती हूँ। शान्तिदेव-(स्वगत) इतना सौन्दर्य, विभव ओर शक्ति एकत्र राज्यया-तुम चुप क्यो हो, भिक्षु ! शान्तिदेव-मुझे जो चाहिये वह नहीं मिल सकता इसलिये मै न मांगूंगा। राज्यश्री--भिनु । मेरा व्रत न खण्डित करो। शान्तिदेव-नही, मे दान न लूंगा, मुझे कुल न चाहिये । (प्रस्थान) राज्यश्री-विमला ! में इस प्रमग से दुखी हो गयी हूं। विमला-चिन्ता न कीजिये देवि, पूजन भी तो हो चुका है । अब पधारिये । राज्यश्री-चलती हूं सखि ! मेग हृदय कह रहा है कि महाराज का कोई सन्देश आ रहा है। विमला-प्रियजन की उत्कण्ठा मे प्राय ऐसा ही भ्रम हुअ. रता है। [प्रतिहारी का प्रवेश] प्रतिहारी- महादेवी की जय हो । मन्त्री महोदय आ रहे है। राज्यश्री-आने दो। मंत्री-(प्रवेश करके)-महादेवी की जय हो | कुछ निवेदन... राज्यश्री-कहिये-कहिये- मंत्री-सीमाप्रान्त से युद्ध का सन्देश आया है। राज्यश्री-(स्वस्थ होकर)-मन्त्री । इसी बात को कहने मे आप संकुचित होते थे ! क्षत्राणी के लिए इसमे बढकर शुभ-समाचार कौन होगा ! आप प्रबन्ध कीजिये, मै निर्भय हैं। राज्यश्री · १२७