पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४४

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[मन्त्री का प्रस्थान] राज्यश्री-चलो, सब लोग फिर से विजय के लिए प्रार्थना कर लें। [सब प्रतिमा के सामने जाकर प्रार्थना करती हैं, पुष्पाञ्जलि चढ़ाती हैं, मन्दिर में अट्टहास, राज्यश्री मूच्छित होती हैं, अन्धकार] [दृश्यान्तर] षष्ठ दृश्य [सुरमा का उपवन] देवगुप्त-सुरमा, तुमको जब बड़े कष्ट से उपवन सीचते देखता हूँ और परिश्रम से फूलों को चुनते और उनकी माला बनाते देखता हूँ, तो मेरा हृदय व्यथित होता है ! सुरमा-क्यों, इतनी गहानुभूति तो आज तक किसी ने मेरे साथ नही दिखलायी ! देवगुप्त--मेरा हृदय जाने, इस 'क्यों' का कारण मैं क्या बतलाऊँ। यह कुसुम तो कामदेव की उपासना मे मुकुट की शोभा बढा सकता है। सुरमा--किसी की अधिक प्रशंसा करना उसे धोखा देना है, श्रेष्ठि ! तुम्हारा" देवगुप्त-ठहरो सुरमा ! मै श्रेष्ठि नही हूँ --आज मैं तुम्हे अभिन्न समझ कर अपना रहस्य कहता हूँ। मैं मालव-नरेश देवगुप्त हूँ। सुरमा-(आश्चर्य से)-क्या ! दूत-(प्रवेश करके)-जय हो देव, स्थाण्वीश्वर में प्रभाकरवर्द्धन का निधन हुआ और राज्यवर्द्धन इस समय हूण-युद्ध के लिए पंचनद गये है। देवगुप्त-अ -अच्छा जाओ! [दूत का प्रस्थान सुरमा-तुम-आप-मालव के- देवगुप्त-हाँ सुरमा, चलोगी मेरे साथ ? सुरमा यह भी सत्य है ? नही महाराज ! जैसे आपका वेश कृनिम है, वैसे ही यह वाणी भी तो नही ? देवगुप्त-नही प्रिये, मैं तुम्हारा अनुवर हूँ। सुरमा- हे भगवान् ! इतना बड़ा सौभाग्य ! नहीं, यह मेरे अदृष्ट का उपहास है। देवगुप्त--सुन्दरी यह उपहाम नही, मत्य है । सुरमा--परन्तु शान्तिभिक्षु की प्रतीक्षा ! १२८ : प्रमाद वाङ्मय