पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४५

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देवगुप्त-कौन शान्तिभिक्षु ? उसे कुछ दान दिया चाहती हो क्या ? सुरमा-नही, दे चुकी हूँ ! देवगुप्त-तो दे दो, यह उपवन ही न-तुम्हें अब इसकी आवश्यकता ही क्या? सुरमा-वही करूंगी। देवगुप्त- मुझे तुमने प्राण-दान दिया, परन्तु देखो, जब तक यहां से हम लोग मालव के लिए प्रस्थान न करें यह वात न खुलने पावे । सुरमा-अच्छा जाती हूँ, विश्वास रखिये -(अस्तव्यस्त भाव से उठ कर जाती है) [मधुकर का प्रवेश] देवगुप्त-सीमा का क्या समाचार है ? वीरमेन की वीरता पर तो मुझे विश्वास है; पर मौखरी भी सहज नही। इधर मै इतने मनुष्यों के साथ दूसरी राजधानी में पड़ा हूँ, बड़ी विषम समस्या है । क्या करूं, कुछ समझ मे नही आता। मधूकर-सीमाप्रान्त मे विजय मिलने की निश्चित सम्भावना है और यदि ऐसा न हुआ, तो शीघ्र ही मालव पहुँच कर सब दोष मन्त्री के मिर रखकर अलग हो जाइयेगा, सन्धि का प्रस्ताव भेज दीजियेगा। क्योकि यह तो प्रसिद्ध है ही कि मालवेश्वर बहुत दिनो से तीर्थ यात्रा के लिए गये है। देवगुप्त-मधुकर | देवगुप्त उसी गुप्त-कुल का है, जिसके नाम से एक दिन समस्त जम्बूद्वीप विकम्पित होता था। आज सिंह-विहीन जंगल मे स्यारों का राज्य है। मुझे एक बार वही चेष्टा करनी होगी। स्थाण्वीश्वर और कान्यकुब्ज दोनों का ध्वंस करना है। मधु-दैव अनुकूल होने से आपकी इच्छा पूरी ही होगी। [चर का प्रवेश चर- जय हो देव ! सीमाप्रान्त का युद्ध आपके पक्ष मे सफल हुआ। ग्रहवर्मा को कड़ी चोट आयी है, क्योंकि वीरसेन ने कान्यकुब्ज की सेना पहुंचने के पहले ही युद्ध आरम्भ कर दिया था। इधर दुर्ग मे भी सेना बहुत कम है ! देवगुप्त-मेरा अनुमान है कि मेरे सैनिक उनसे अधिक है । मधुकर ! सुनो तो-(कान में कुछ कहता है, प्रकट)-जब कुछ और सना सीमा की ओर चली जाय, तो जिस ढंग से बताया है, उसी प्रकार मेरे सब सैनिक दुर्ग ने एकत्र हों। 'विजय' संकेत होगा, जाओ-बस । [सबका प्रस्थान/दृश्यान्तर]] राज्यश्री: १२९