पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तम दृश्य [प्रकोष्ठ में मूछित राज्यश्री और सखियाँ] विमला-सखी ! क्या होगा ! कमला-क्या कहूँ, मन्दिर वाली घटना से अभी तक एक बार भी पूरी चेतना नहीं आयी । सखी ! यह बात तो आश्चर्यजनक हुई–क्या कोई अपदेवता वहां उस दिन आ गया था? विमला--सखी मैं तो समझती हूँ वही भिक्षु ठठाकर हंस पडा और महारानी को प्रतिमा हमने के अपशकुन की आशंका हुई। कमला-देख, देख, अब उठ रही है, कुछ कहना ही चाहती है- [मन्त्री का प्रवेश, राज्यश्री उठकर प्रलाप करती है] राज्यश्री-हंस दिया--हां, हँस दिया ! मेरी प्रार्थना पर हँस दिया! क्या वह अनुचित थी? मेरी बात क्या हैंसने योग्य थी? नही, नही, हँसी का कारण है मेरा निर्बल होना । हँसो और भी हमो ! मेरी प्रार्थना तुम्हारे कर्कश कठोर अट्टहास में विलीन हो जाय ! हा हा हा हा ! मन्त्री-किससे और क्या कहूँ ? जिसकी आशंका-मात्र से यह दशा है, उसे वास्तविक समाचार देने का क्या परिणाम होगा ? कुटिलते ! देख, तूने एक सोने का संसार मिट्टी में मिला दिया। [प्रतिहारी का प्रस्तभाव से प्रवेश] प्रतिहारी-आर्य ! न मालूम क्यों दुर्ग मे बड़ी भीड़ इकट्ठी हो रही है। प्रजा कह रही है कि मुझे महाराज की सच्ची अवस्था मालूम होनी चाहिये । मन्त्री -उन लोगो मे कहो कि हम अभी आते है। [प्रतिहारी का प्रस्थान [राज्यश्री उठकर उन्मत्त भाव से टहलती है] प्रतिहारी-(पुनः प्रवेश करके)-अनर्थ ! मन्त्री -क्या हुआ ? कुछ कहो भी ! प्रतिहारी-उन्ही प्रजाओं के साथ दुर्ग में सहस्रों शत्रु घुस आये हैं। मन्त्री-हूँ ! वह प्रजा न थी, जो इस तरह षड्यन्त्र करके दुर्ग में चली आयी? वे शत्रु"(विचारने लगता है) [एक सैनिक का प्रवेश] सैनिक-मन्त्रिवर ! दुर्ग-रक्षक सैन्य संगह करके आत्म-रक्षा का प्रबन्ध कर रहे हैं। उन्होंने मुझे यह कहने के लिए भेजा है कि इस उपद्रव का नेता वही दुष्ट वणिक वेशधारी मालवेश है। १३० : प्रसाद वाङ्मय