पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४७

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मन्त्री--(चौंक कर) क्या मालवेश ? अच्छा ! जाओ, युद्ध में पीछे न हटना ! कान्यकुब्ज के एक भी सैनिक के जीवित रहते देवगुप्त दुर्ग पर अधिकार न करने पावे। [सैनिक का प्रस्थान] राज्यश्री -मन्त्री ! उसने हँस दिया ! [नेपथ्य में रण-कोलाहल] मन्त्री-विमला ! यहाँ महारानी का रहना ठीक नहीं । राज्यश्री--महारानी फिर कहाँ जायंगी? मन्त्री-शत्रु दुर्ग में घुस आये हैं । राज्यश्री-जाओं, उन्हें सादर लिवा लाओ। मन्त्री-हे भगवान् ! [विजयी देवगुप्त का सैनिकों के साथ प्रवेश। राज्यश्री मन्त्री का खड्ग ले लेती है और देवगुप्त पर उसे चलाती है, देवगुप्त उसे पकड़ता है और वह मूच्छित होती है] [यवनिका] द्वितीय अंक प्रथम दृश्य [सुरमा का उपवन/अकेले शान्तिदेव शान्तिदेव -मैं संमार मे अलग किया गया था-पिस लिये ? पिता ने मुझे भिक्षुसंघ में समर्पण किया था--क्या इसलिये कि मैं धार्मिक जीवन व्यतीत करूं? मेरे लिये उस हृदय मे दया या सहानुभूति न थी ! जब हृदय-कानन की आशा-लता बलवती हुई, तो मै देखता हूँ कि कर्मक्षेत्र मे मेरे लिये कुछ अवशिष्ट नही । सुरमा- जीवन की पहली चिनगारी-वह भी किधर गयी ! धधक उठी एक ज्वाला- राज्यश्री !--(सोचकर)-मूर्ख ! मैं निश्चय नही कर पाता कि सुरमा या राज्यश्री, मेरे जलते हुये ग्रहपिण्ड के भ्रमण का कौन केन्द्र है ! कान्यकुब्ज में इतना बड़ा परिवर्तन ! इधर सुरमा भी न जान कहाँ गय' । तो क्या करूँ ? लौट जाऊँ मंघ में ? नहीं, संघ मेरे लिए नही है। अब यही कुटी में रहूँगा। तो क्या मैं तपस्वी होऊँगा? नहीं, अच्छा जो नियति करो। (देखकर)-ओह ! कैसी काली रात है ! राज्यश्री: १३१