पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४८

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[सोता है।दस्युओं का प्रवेश] एक-आज जो सेना हम लोगों देखी, वह किसकी है ? दूसरा-राज्यवर्द्धन की सेना है। राज्यश्री और ग्रहवर्मा का प्रतिशोध लेने आ रही है। पहला-तो क्या राज्यश्री भी मार डाली गयी? दूसरा-नही जी, वह तो वन्दी है। इसी गडबडी मे तो अपना हाथ लगेगा। क्या बताऊँ, यदि राज्यश्री को हम लोग पा जाते, तो बहुत-सा धन मिलता। [शान्तिदेव करवटें बदलता है] पहला-(उसे देखकर)-तू कौन है रे ? शान्तिदेव-विकटघोष दूसरा-मो तो तेरे लम्बे-चौड़े हाथ-पैर और कर्कग कण्ठ से ही प्रकट है, पर तू करता क्या है ? विकटघोप- मैं कान्यकुब्ज का दस्यु, मूर्व | मेरे क्षेत्र मे तू क्यों आया ? पहला- भाई विकटघोष ! तो हम लोग भी तुम्हे अपना नेता मानेगे। विकटघोष- यह बात ! फिर राज्यश्री को अकेले लोप करने का प्रयत्न न करना ! समझा। दोनों-नही, भला ऐमा भी हो गकता है ! परन्तु दस्युपति, एक और भी सेना गौड़ की आ रही है। इन दोनो के आक्रमण के बीच से राज्यश्री को निकाल ले जाना सहज काम नही। विकटघोप-डरपोक | इसी बल पर दम्यु बना है । दोनों-नही, हम लोग प्राण देने या लेने में पीछे नही हटते । विकटघोष- तो अन्छी बात है। चलो हम लोग आज रात मे दोनों सेनाओ का लक्ष्य तो समझ ले दोनों-चलो। [तीनों का प्रस्थान/दृश्यान्तर] दूसरा दृश्य [वन-पथ] [कुछ सैनिकों के साथ भण्डि का प्रवेश] भण्डि-क्यों जी, अब तो मेरा अनुमान है कि कन्नौज की सीमा समीप है। एक सैनिक--हम लोग तो आज ही पहुँच गये होने, यदि गौड़राज की प्रतीक्षा में समय नष्ट न किया गया होता है । १३२ :प्रसाद वाङ्मय