पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१४९

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भण्डि -आज ही तो नरेन्द्रगुप्त शशांक के आने का निश्चय था, और इसी कानन का स्थान नियत था, फिर अभी वे क्यों नहीं आये ? अन्य सैनिक--आवें चाहे न आवें। सेनापति ! इस अकारण मंत्री से मेरा चित्त तो बहुत शकित हो रहा है। महाराज कुमार ने न जाने क्यों उस पर इतना विश्वास कर लिया है। क्या हम लोग स्वयं इस दुष्ट मालवपति को दण्ड देने में असमर्थ है? भण्डि-यह ठीक है, पर यदि राजनीति मित्रता से सफल होती हो, तो विग्रह करना उचित नहीं। उसकी भी स्थाण्वीश्वर से मैत्री करने की इच्छा है। क्यों ? केवल वर्द्धनों का लोहा मानकर ! तीसरा सैनिक--अच्छा, तो अब आप पट-मण्डप मे विश्राम करें, महाराज- कुमार के पूछने पर आपको मैं सूचना देंगा। शिविर आपका समीप है। भण्डि-अच्छा (सामने देखकर)-ये तीन कौन अपरिचित-से चले आ रहे है। [विकटघोष का अपने दो साथियों सहित प्रवेश] विकटघोप-(प्रणाम करके)-सेनापति की कृपा से मेरा मनोरथ पूर्ण हो । भण्डि---तुम्हारी क्या अभिलापा है विकटघोष -हम लोग माहसिक है परन्तु अव चारित्र्य और वीरतापूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, देवगुप्त हमाग चिरशत्रु है, उससे प्रतिशोध लेना हमारा अभीष्ट है। भण्डि--किन्तु तुम्हारा विश्वास ? विकटघोप-क्या हम हम तीन वीरों से आप डरते है-क्या इतनी बड़ी सेना को हम तीन व्यक्ति वंचित कर सकते है ! इतनी मूर्खता मेरे मन में तो नहीं है, सेनापति ! भण्डि-किन्तु"" विकटघोष--किन्तु कौन जन्तु है, मैं नहीं जानता ! वीरों के पास कोई प्रमाण- पत्र नहीं लिखा रहता, सेनापति ! यदि आप अविश्वास करते हों, तो हम लोग चले जायें। भण्डि-तुम्हारा परिचय? विकटघोष-मेरा नाम है विकटघोष : ये दोनों मेरे शूर साथी हैं। मैं आपका उपकार करूंगा; विजय में उपयोगी सिद्ध हो सकूँगा भण्डि-क्या ? 2 राज्यश्री: १३३