पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५३

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1 मधुकर - हाँ ! अधिक कष्ट करने की आवश्यकता नही–आपको दूर जानी भी होगा? विकटघोष -चुप रहो, पहले यह तो पूछा ही नही मि तुम क्यो आये थे। मधुकर-आप जाइये, मै पूछ लूंगा ! उधर -(राह दिखलाता है) विकटघोष-तुझे तुम्हारी महारानी में मिलना है । मधुकर-तब आपको उस ठाठ से आना चाहिये था ! यह भयानक दाढी और विच्छ की दुम-नही-नही डंक-सी मूंछ | उहुँ । आप तनिक भी सहृदय नही–इसे कुछ नीची कीजिये ! (हाथ बढ़ाता है) विकटघोष-(झटक कर)-सीधे बताओ किधर से जाना होगा ? मधुकर - दो पथ है। एक सुन्दर राजमन्दिर में जाता है, जहाँ श्रीमती मुरमा देवी विराजमान है और दूसग बन्दीगृह मे, जहाँ राज्यश्री है। आप किस रानी से भेट किया चाहते है ? विकटघोष- (चौंक कर)-सुरमा ! कौन ? मधुकर- अजी ! वे नयी रानी है-इस नये राज्य की ! समझते नही, गजा लोग जब नये राज्य बना सरते है, तो उममे रानी वही पुरानी रक्खेगे ! विकटघोष यह कहाँ की राजकुमारी है ? मधुकर--अरे इसी बुद्धि पर तुम रानी से मिलने चले हो। (उसे छुरा निकालते देख कर डरता हुआ)-पहले मे भीतर करो, नही तो मेरे प्राण बाहर आ जायेंगे। विकटघोष- तो बताओ शीघ्र । मधुकर -- वह तो इसी कान्यकुब्ज की एक मालिन है उसे भीतर... [भयभीत होकर छुरे को देखता है! विकटघोष-(छुरे को भीतर रखता हुआ सोचता है)-तो क्या वही सुरमा वह रानी । देवगुप्त की प्रणयिनी । उमके यहाँ कौन सा पथ जायेगा? मधुकर- यही (सामने दिखाकर)-और उधर -(बताकर) आप राज्यश्री से मिल सकते है। विकटघोष- अच्छा अब तुम विश्राम करो। (उसके हाथ-पैर बाँधने लगता है) मधुकर-यह क्या ?-यह मित्रता है ! विकटघोष--चुप रहो (संकेत करता है) [दूसरा दस्यु आता है, उसे वहीं छो 'कर विकटघोष चला जाता है दूसरा दस्यु उसे घसीटकर ले जाता है] [दृश्यान्तर]] राज्यश्री : १३७