पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लेने का प्रस्ताव होता है ! प्रवञ्चना की पुजारिन ! युवती, रमणी, सुरमा तुमने ! मुझे पहचाना? सुरमा-पहचानती हूँ शान्तिभिक्षु ! मेरा अपराध क्षमा करोगे? शान्तिदेव--- अपराध का पता लगा है अभी, सुरमा ? मैंने तो यही कहा था कि 'अभी विलम्ब है, थोड़ा ठहरो' -तब तुमने समीर की-सी गति धारण कर ली- आंधी चल पड़ी । ठहरने का क्षण समय की सारिणी से लोप हो गया-वाह-री छलना! सुरमा-क्षमा करो शान्तिभिक्षु ! शान्तिदेव-अभी नही सुरमा ! विलम्ब है ! [प्रस्थान/दृश्यान्तर]] सप्तम दृश्य [राज्यश्री बन्दीगृह में] नरदत्त-कौन न कहेगा कि महत्त्वशाली व्यक्तियो के सौभाग्य-अभिनय मे धूर्तता का बहुत हाथ होता है। जिसके रहस्यों को सुनने से रोम-कूप स्वेद-जल से भर उठे, जिसके अपराध का पात्र छलक रहा है, वही समाज का नेता है। जिसके दण्डनीय कार्यों का न्याय करने मे परमात्मा को समय लगे, वही दण्ड-विधायक है। यदि किसी साधारण मनुष्य का यही काम होता, जो महाराज देवगुप्त ने किया है, तो वह चोर, लम्पट और धूर्त आदि उपाधियो मे विभूषित होता। परन्तु उन्हे कौन कह सकता है ? -(राज्यश्री को देखकर)-अहा, कैमा देवी का-सा रूप है ! देखते ही श्रद्धा होती है । [अन्य प्रहरियों का प्रवेश] नरदत्त-क्यो जी, तुम लोग अब तक कहाँ थे ? वडा विलम्ब किया ! एक-आपको क्या मालम नही ! उधर इतना बखेडा फैला है ! नरदत्त-क्या? कुछ सुने भी। हम तो यही थे न ! एक-राज्यवर्द्धन की सेना घुमी चली आ रही है। नरदत्त--और महाराज ? एक-जायँगे कहाँ ? दुर्ग-द्वार पर तो भीषण युद्ध हो रहा है। [नेपथ्य में रण-वाद्य और कोलाहल] नरदत्त -अच्छा, तुम लोग मावधान रहना । मैं देख आऊँ ! (प्रस्थान) दूसरा -क्या कहे, यह चुडैल भी हम लोगो के पीछे लगी है, नही तो अब तक हम लोग नौ-दो ग्यारह होते ! राज्यश्री--(चैतन्य होकर) क्यों जी, यह युद्ध का शब्द कैसा ? १४० :प्रसाद वाङ्मय