पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१७१

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[विकटघोष चुप रहता है] भण्डि-देव ! यही नीच है, जिसने कुमार राज्यवर्द्धन की हत्या की थी। मैंने इसे भागते हुए देखा था; परन्तु उस समय मैं नरेन्द्र के पीछ पड़ा था। हर्षवर्द्धन-क्या ? यही है ? सब लोग--बध करो । बध करो !! राज्यश्रो-ठहरो (देखकर)-मुझे स्मरण हो रहा है। हां, वही तो है ! तुम तो भिक्षु शान्तिदेव थे। विकटघोष-हॉ देवि ! हर्षवर्द्धन-क्या ? भिक्षु ! राज्यश्री-हॉ, यह भिक्षु था, भाई। मैने इससे कहा था-'तुम संयत करो अपने मन को श्लाघा और आकाक्षा का पथ बहुत पहले छोड़ चुके हो' परन्तु यह- हे भगवान् । विकटघोष--मरे वध की आज्ञा दीजिये । ओह ! प्राण जल रहे है । रोम-रोम से चिनगागि निकल रही है.""दण्ड दण्ड । हे भगवान् ! राज्यश्री -आज हम लोगो ने मर्वस्व दान क्यिा है, भाई ! आज महाव्रत का उद्यापन है । यो एक यही दान रह जाय-इसे प्राणदान दो भाई ! ["देवी राज्यश्री की जय" का तुमुल घोष] सुरमा--(दौड़ती हुई आयो)--मुझे भी महारानी । स्त्री की मर्यादा ! करुणा की देवी | गज्य श्री | मुझे भी दण्ड ! राज्यश्री अरे तु मालिन । सुरमा हाँ भगवति । मेरा प्रायश्रित्त ? राज्यश्रो-महाश्रमण आज मबका प्रायश्चित्त चित्त-शुद्धि-पूर्वक काषाय लेने मे है। आप इन दोनो को भी वाषार दीजिये। [महाश्रमण आगे बढ़कर दो काषाय देते है । विकटघोष का बन्धन खोला जाता है] सुएनच्वाग--'दस्युराज ' मै रुण्ये लेकर नही आया हूँ। मेरे पास थोडा-सा धर्म है और छ गान्ति--तुम चाहते हो लेना ?'--- --मैने यही एक दिन तुमसे कहा था, वही आज भी रहता है। [विकटघोष और सुरमा दोनों मह. मण के पैर पर गिरते हैं। थालों में मणि, आभूषण और वस्त्र लिये कुमारराज, उदितराज इत्यादि आते है] - राज्यश्री १५५