पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१७२

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-यह क्या? हर्षवर्द्धन-- कुमारराज-उसी धर्म की रक्षा के लिए बोधिसत्व का व्रत ग्रहण कीजिये । आप भिक्षु होकर लोक का कल्याण नही कर सकते-राजदण्ड से ही आपका कर्तव्य पूर्ण होगा। लोक-सेवा छोड़कर आप व्रत-भंग न कीजिये । सुएनच्चांग-हाँ महाराज ! इस धर्मराज्य का शासन करने के लिए आपको राजमुकुट और दण्ड ग्रहण करना ही पड़ेगा। राज्यश्री-भाई ! यहाँ त्याग का प्रश्न नही है। यह लोक-सेवा है। ऐसा राज्य करने का आदर्श आर्यावर्त की ही उत्तम-श्री है । [हर्ष नत होकर मुकुट और राजदण्ड ग्रहण करता है] [जयघोष] "जय महाराजाधिराज हर्षवर्द्धन की जय !" "जय देवी राज्यश्री की जय !" [आलोक-पुष्पवर्षा] [समवेत स्वर से] करुणा-कादम्बिनि बरसे ! दुख से जली हुई यह धरणी प्रमुदित हो सरसे । प्रेम-प्रचार रहे जगतीतल दया-दान दरसे । मिटे कलह शुभ शान्ति प्रकट हो अचर और चर से। [यवनिका] १५६ : प्रसाद वाङ्मय