पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विशाख प्रथम अङ्क वरुणालय कल प्रथम दृश्य [स्थान-काश्मीर का एक कुञ्ज, पास ही हरा-भरा खेत, शिला-खण्ड पर बैठा हुआ स्नातक विशाख] विशाख-(आप ही आप)- चित्त शान्त था, अरुणा थी पहली नयी उषा, तरुणाब्ज अतीत था खिला, करुणा की मकरन्द वृष्टि थी, सुषमा वनदेवता बनी-- करती आदर थी अनन्त की, कोकिल कल्पनावती, मुद में मंगल गान गा रही, स्मृतियाँ सब जन्म-जन्म की- खिलती थीं सुमनावली बनी, वह कौन ? कहाँ ? न ज्ञात था, मुख में केवल व्यस्त चित्त था। वह बीत गया अतीत था, तम-सन्ध्या उसको छिपा गयी, न भविष्य रहा समीप में- किसको चञ्चल चित्त सौंप दूं? शेशव ! जब से तेरा साथ छूटा तब से असन्तोष, अतृप्ति और अटूट अभिलाषाओं ने हृदय को घोंसला बना डाला। इन विहंगमों का कलरव मन को शान्त होकर थोड़ी देर भी सोने नहीं देता। यौवन सुख के लिये आता है--यह एक भारी भ्रम है। आशामय भावी सुखों के लिए इसे कठोर कर्मों का संकलन ही कहना होगा। उन्नति के लिए मैं भी पहली दौड़ लगाने चला हूँ। देखू, क्या अदृष्ट में है। थोड़ा विश्राम कर लूं, फिर चलूंगा। [वृक्ष के सहारे टिक जाता है] विशाख : १६१