पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१७८

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[चन्द्रलेखा अपनी बहिन इरावती के साथ मलिन वेश में उसी खेत में आती है, सेम की फलियां तोड़ती है, विशाख उसे देखता है] विशाख-(मन में)-ऐमा सुन्दर रूप और वेश ऐसा मलिन ! सलोने अंग पर पट हो मलिन भी रंग लाता है। कुमुम-रज से ढंका भी हो कमल फिर भी सुहाता है । विधाता की लीला ! ठीक भी है, रत्न मिट्टियों में से ही निकलते हैं। स्वर्ण से जड़ी हुई मञ्जूषाओं ने तो कभी एक भो रत्न उत्पन्न नहीं किया। (फिर देखकर) इनकी दरिद्रता ने उन्हें सेम की फलियों पर ही निर्वाह का आदेश किया है । [फलियाँ तोड़कर वृक्षों के नीचे विश्राम करती हुई दोनों गाती हैं] चन्द्रलेखा- सखी री ! सुख किसको है रहते ? बीत रहा है जीवन सारा केवल दुख ही सहते ॥ करुणा, कान्त कल्पना है बस; दय। न पड़ी दिखायी। निर्दय जगत-कठोर-हृदय है, और कही चल रहते ।। सखी री ! सुख किसको है कहते ? विशाख-(सामने जाकर)-देवियों ! आप कौन हैं ? क्या कृपा करके बतावेंगी कि आपका दु.ख किस प्रकार बाँटा जा सकता है ? सौन्दर्य में मुर-सुन्दरियों को भी लज्जित करनेवाली आप लोग क्यों दुखी है ? ओर, ये फलियाँ आप क्यों एकत्र कर रही हैं ? इरावती - (भयभीत होकर)-क्षमा कीजिये, मै अब कभी इधर न आऊँगी। दरिद्रता ने विवश किया है इसी से आज सेम की फलियाँ, पेट भरने के लिए, अपने बूढ़े बाप की रक्षा करने के लिए, तोड़ ली हैं । यदि आज्ञा हो तो इन्हें भी रख दूं। [सब फलियाँ उझल देती है] चन्द्रलेखा--हा निर्दय देव ! विशाख-- डरो मत, डगे मत । मैं इम कानन या क्षेत्र का स्वामी नही हूँ। मैं तो एक पथिक हूँ। आप लोगों का शुभ नाम क्या है, परिचय क्या है ? इरावती- हम दोनों सुश्रवा नाग की कन्यायें है। किसी समय मेग पिता इस रमाण्याटवी प्रदेश का स्वामी था, और तब-सब तरह के सुखों ने हम लोगों के शैशव में साथ दिया था। पर हा ! विशाख--उन बीती बातों को मोच कर हृदय को दुखी न बनाओ। अपना शुभ नाम बताओ। १६२ : प्रगाद वाङ्मय