पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८१

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[सुश्रवा नागगाता हुआ आता है। उठती है लहर-हरी-हरी पतवार पुरानी, पवन प्रलय का कैसा किये पछेड़ा है उठती है लहर-हरी-हरी । निस्तब्ध जगत है, कहीं नही कुछ फिर भी मचा बखेड़ा है उठती है लहर-हरी हरी । नक्षत्र नहीं हैं कुहू निशा में बीच नदी में बेड़ा है उठती है लहर-हरी-हरी । 'हाँ पार लगेगा घबराओ मत' किसने यह स्वर छेड़ा है ? उठती है लहर-हरी-हरी । भिक्षु-ऐ बेड़ा बखेड़ा ! खेत मत रौंद, नहीं तो पैर तोड़ दूंगा। सुश्रवा-नही महाराज, मैं तो पगडण्डी से जा रहा हूँ। भिक्षु-मुझी को अन्धा बनाता है ! सुश्रवा-हा दुर्दैव ! यह हमारे पितृ-पितामहों की भूमि थी, उसी पर चलने में ! यह कतई। भिक्षु -क्या ! क्या ! क्या ! तेरे पितृ-पितामहों की भूमि थी ? अरे मूर्ख, भूमि किसकी हुई है ? यदि तेरे बाप-दादों की थी तो मेरे भी लकड़दादा, नकड़दादा या किसी खपड़दादा की रही होगी। क्या तू इस पर चल-फिर कर अपना अधिकार जमाना चाहता है ? निकल जा यहाँ से, चला जा-(उसे ढकेलता है, सुश्रवा गिर कर उठता है) सुश्रवा -जब तुमको इतनी तृष्णा है तो फिर मैं तो बाल-बच्चोंवाला गृहस्थ हूँ; यदि मेरे मुंह से दबी हुई आत्मश्लाघा निकल ही पड़ी तो फिर उस पर इतना क्रोध क्यों ? तुम जानते हो, मैं वही सुश्रवा नाग हूँ जिसके आतंक से यह रमणक प्रदेश थर्राता था ! अभी भी तुम्हारे जैसे कीड़ों को मसल डालने के लिये इन वृद्ध बाहों में कम बल नहीं है। भिक्षु-(डरता हुआ भी घुड़क कर)-चुपचाप चला जा, नही तो कान सीधे कर दिये जायेंगे। सुश्रवा-क्या मैंने कुछ अपराध किया है जो दब कर चला जाऊँ ? ठहर जा, अभी कचूमर निकालता हूँ ?-(डण्डा उठाता है) भिक्षु-(स्वगत) -डण्डा तो मेरे पास भी है पर काम गले से लेना चाहिये । (प्रकट) अरे दौड़ो, यह मुझे मारता है; गोई विहार में है कि नही ई ई ई ? (पांच-सात युवा भिक्षु निकल पड़ते हैं और उस वृद्ध सुश्रवा को पकड़ लेते हैं । दौड़ती हुई चन्द्रलेखा आती है) विशाख: १६५