पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८३

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महापिंगल-अरे लण्ठ ! अभी मूर्खता का क, ख, ग, घ, पढ़ रहा है ! तुझे यह पूछना चाहिये कि हमारे ऐसे दुमदारों के बिना बिचारे राजा की क्या स्थिति होती ? वे कैसे रहते ? उठ-बैठ सकते कि नहीं ? उनकी समझ की ज्वाला में आहुति पड़ती कि नहीं? विशाख-अस्तु-अस्तु, वही कहिये, वही कहिये । महापिंगल-महाराज को हमारे ऐसे यदि दो-चार चाटुकार, सामन्त न मिलते तो उन्हें बुद्धि का अजीर्ण हो जाता-और उनकी हां-में-हाँ न मिलने से फिर भयानक वात की संग्रहणी हो जाती और निरीह प्रजा से अनेक विधानों से कर न मिलने के कारण उन्हें उपवास करके ही अच्छा होना पड़ता था। विशाख-(बात को दूसरे रुख पर ले जाने के लिए)--मेरा मन गाना सुनना चाहता है। महापिंगल-तो क्या तुमने यह कोई नाट्य-गृह समझ रखा है ? विशाख-खेद, साहित्य और संगीत तो सुयोग्य नागरिकों को ही आता है। मैंने आपके गाने की बड़ी प्रशंसा सुनी है, इसी से–हाँ । महागल-(प्रसन्न होकर) तुम रसिक भी हो। अच्छा-अच्छा, सुनाऊंगा, ठहरो, चित्त उसके अनुकूल हो जाय -(खांसता है) विशाख-(अलग)--मुझे तो बच्चा, तुमसे काम निकालना है। (प्रकट) चित्त को भी स्वर के साथ मिलाना पड़ता है | संगीत क्या साधारण"" महापिंगल-तुमने भी कैसी अच्छी संगीत-विज्ञान की बात कही है, वाद्य तो पीछे मिलता है, पहले मन तो मिले । विशाख -मन मिलने से कण्ठ मिलता है । महापिंगल-यथार्थ है, क्या कहा-वाह वाह ! अच्छा गाता हूँ--(खाँसता है) [महापिंगल भीषण स्वर में गाता है] मचा है जग भर में अन्धेर । उल्टा-सीधा जो कुछ समझा वही हो गया ढेर । बुद्धि-अन्ध के हाथों जैसे कोई लगी वटेर, किसी तरह से करो उड़ञ्छू औरों का धन ढेर । बक-बक करके चुप कर दो वस चतुर हुए, क्या देर ? चलती है यह चला करेगी चालें इसकी घेर । किया करेंगे इसमें हेराफेर। मचा है जग भर में अन्धेर । चतुर सयाने विशाख: १६७