पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८६

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खिलाओ ! खिलाओ ! और जब खा-पी चुके तब बड़े भारी शास्त्री की तरह आलोचना करने लगे। उसमें नमक विशेष था, खीर में मीठा कुछ फीका था। लड्डू गीला था, ऐं? सभासद-वह तो जब हम लोग सन्ध्या को पहुंचेंगे तब मालूम होगा ? महापिंगल-अरे बाबा तुम्हें प्रीति-भोज ही लेना है तो उन मालदार महन्तों के यहाँ क्यों नहीं जाते, जहाँ नित्य मालपुआ और लड्डू बना करते हैं । यदि कुत्ते की तरह बाहर भी बैठे रहोगे, तो जूठी पत्तलों से पेट भर जायगा। सभासद-तुम बड़े असभ्य हो ! महापिंगल-और यह बड़े सभ्य हैं, जो बिना बुलाये भोजन करने को प्रस्तुत हैं। जाओ-जाओ, बड़े-बड़े विहारों में यदि तुम मिट्टी फेंकते तो भी तुम लड्डू के लिए लालायित न रहते । नरदेव -आज तो बौद्ध महन्त और विहारों के पीछे बहुत पड़ रहे हो ! कुशल तो है ? महापिंगल-महाराज ! अब तो मैं तपस्या करूंगा कि यदि पुनर्जन्म हो, तो मैं किसी विहार का महन्त होऊँ। राज-कर से मुक्त, अच्छी खासी जमीदारी, बड़े-बड़े लोग सिर झुकावे और चेली लोग पैर दबावें, तुम्हारे नाम जो है सो। नरदेव-चुप मूर्ख ! भिक्षुओं के साथ हंसी ठीक नहीं, वे पूजनीय हैं। महापिंगल-क्षमा हो पृथ्वीनाथ, उसी झगड़े मे देर हुई है। अभी उनकी साधुता का सुन्दर नमूना ड्योढ़ी पर है । यदि आज्ञा हो तो बुलाऊँ। नरदेव-क्यों कोई आया है ? महापिगल --हाँ, दुःखी बिनती सुनाने आया है । नरदेव-उसे बुलाओ। महापिंगल-जो आशा -(जाता है, विशाख को लेकर आता हैं) विशाख -जय हो देव ! राज्य-श्री बढ़े ! प्रजा का कल्याण हो। नरदेव-प्रणाम ब्राह्मण देवता-कहिये क्या काम है ? विशाख-राजन् ! पुण्य को पाप न होने देना, आप ही से प्रबल प्रतापी नरेश का कर्तव्य है। नरदेव -उसका अर्थ सविस्तार कहिये । विशाख-कानीर विहार का बौद्ध महन्त जिसे राज्य की ओर से बहुत-सी सम्पत्ति मिली है, प्रमादी हो गया है। दीन-दुखियों की कुछ नहीं सुनता-मोटे निठल्लों को एकत्र कर के विहार में विहार कर रहा है। एक दरिद्र नाग की कन्या को अकारण पकड़ कर अपने मठ में बन्द कर रक्खा है। उसका वृद्ध पिता दुखी होकर तार-द्वार विलाप कर रहा है। १७. :प्रसाद वाङ्मय