पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- नरदेव --क्या ? मेरे राज्य में ऐसा अन्याय और सो भी राजधानी के समीप ही ! भला वह किसकी कन्या है ? विशाख-पृथ्वीनाथ, सुश्रवा नाग की। उसी की भूमि अपहृत करके आपके स्वर्गीय पिता ने विहार में दान कर दिया था। मन्त्री-चुप मूर्ख, राज-मभा में तुझे बोलना नहीं आता, अपहृत कैसी ? भूमि का अधिपति तो राजा है, वह जब जिसे चाहे दे सकता है। विशाख-क्षमा मन्त्रिवर ! क्षमा ! बोलना तो आता है; परन्तु क्या राजसभा में सत्य उपेक्षित रहता है ? यदि ऐसा हो, तो हम क्षम्य हैं। क्योंकि, हम अभी गुरुकुल से निकले हैं, राज-व्यवहार से अनभिज्ञ हैं। नरदेव । बस ब्राह्मणदेव पर्याप्त हुआ (मन्त्री से) क्यों मन्त्रिवर ! क्या यही प्रबन्ध राज्य का है ? खेद की बात है। अभी इस ब्राह्मण की बातों की खोज जाय, और गुप्त रीति मे । देखो आलस न हो ! हम स्वयं इसका न्याय करेंगे। महापिंगल-स्वामी ये भी तो 'ग्राम कण्टक' है। इनकी अवश्य खोज लेनी चाहिये । शास्त्र मे लिखा भी है 'कण्टकेनैव कण्टक' जो है सो। नरदेव-चुप रहो, तुम्हारी बाते अच्छी नही लगती । मन्त्री शीघ्र प्रबन्ध करो, बस जाओ।" [मन्त्री और विशाख तथा महापिंगल जाते हैं] दृश्यान्तर चतुर्थ दृश्य (स्थान-विहार के समीप का पथ) (एक रंगीला साधु गाता हुआ आता है) साधु- तू खोजता किसे, अरे आनन्दरूप है। उस प्रेम के प्रभाव ने पागल बना दिया। सब को ममत्त्व मोह का आसव पिला दिया। अपने पर आप मर रहा यह भ्रम अनूप है । यह सत्य यही स्वर्ग यही पुण्य-घोष है। सत्कर्म कर्मयोग यही विश्व कोश है ।। किसने कहा कि झूठ है संसार कूप है । सेवा, परोपकार, प्रेम सत्य कल्पना। इनके नियम अमोघ और झूठ जल्पना ।। हो शान्ति की सत्ता वही शक्ति-स्वरूप है। विशाख: १७१