पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८९

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, भिक्षु-क्या तुम झगड़ा करने आये हो ? विशाख-क्या तुमको शील और विनय की शिक्षा नहीं मिली है ? भिक्षु-अशिष्ट पुरुषों के लिये अन्य प्रकार का शिष्टाचार है। और अब तुम यहां से सीधे चले जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है ? विशाख -बस ! मिट्टी के बर्तन थोड़ी ही आंच में तड़क जाते हैं । नये पशु एक ही प्रहार में भड़क जाते हैं। यह राजपथ है, यहां से हटाने का तुम्हें अधिकार नहीं है । वस अब तुम्हीं अपने विहार-बिल में घुस जाओ ! भिक्षु-(कमर बाँधता हुआ) तो क्या तुम नही जाओगे ? विशाख-समझ लो, कही गांठ पड़ जायगी तो कमर न खुलेगी, और तुम्हें ही व्यथा होगी (हंसता है)। [सत्यशील और प्रेमानन्द निकल पड़ते हैं] सत्यशील-क्या है ? क्यों झगड़ते हो ? (विशाख को देखता है) प्रेमानन्द-विशाख । यह क्या है ? (विशाख अभिवादन करता है) विश.ख-गुरुदेव, आपका यहाँ आना सुनकर मैं भी चला आया। प्रेमानन्द-क्या तुम अभी अपने घर नही गये ? विशाख -गुरुकुल से निकलते ही कर्तव्य सामने मिला। आपकी आज्ञा थी कि सेवा, परोपकार और दुखी की महायता मनुष्य के प्रधान कर्तव्य है । प्रेमानन्द -भला ! तुम्हारे कार्य का विवरण तो सुनूं । विशाख-मुझे कहते संकोच होता है। प्रेमानन्द--नही । संकोच की क्या आवश्यकता है, स्पष्ट कह सकते हो। विशाख-आपने जिनका आतिथ्य ग्रहण किया है, इन्ही महात्मा ने एक कुटुम्ब को बड़ा दुखी बनाया है, और उसकी कन्या को अपने विहार में बन्द कर रक्खा है। प्रेमानन्द-सत्यशील, क्या यह सत्य है ? सत्यशील-तुम कौन होते हो। अजी तुमने किस संघ मे उपसम्पदा ग्रहण की है ? केवल सिर घुटा लेने से ही श्रमण नही होता, हाँ । पहले अपनी तो कहो, तुम्हें प्रश्न करने का क्या अधिकार है ? क्या आतिथ्य का यही प्रतिकार है ? बस चले जाओ सीधे, हाँ ! प्रेमानन्द--मैं शाश्वत संघ का अनुयायी हूँ । प्रेम की सत्ता को संसार में जगाना मेरा कर्तव्य है। तो भी संसारी नियम, जिसमें समाज का सामंजस्य बना रहे, पालनीय हैं, और तुम उससे उपेक्षा दिखलाते हो। क्या तुम उस कन्या को न छोड़ दोगे ? क्या धर्म की आड़ में प्रभूत पाप बटोरोगे ? सत्यशील--तुम्हें यहाँ से जाना है या नहीं ? विशाख : १७३