पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१९२

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- (स्वगत) हा ! प्रेम का विकास और विपत्ति का परिहास साथ-ही-साथ दोनों उबल पड़े हृदय में विपत्ति की दारुण ज्वाला जल रही थी, उसी में प्रणय सुधाकर ने शीतलता की वर्षा की, मरुभूमि लहलहा उठी। इस कुत्सित कोठरी में आँख बन्द कर उसी स्वर्ग का आनन्द लेती हूँ। निष्ठुर पाखण्ड ने मुझे कितना प्रलोभन दिया। यदि एक बार देख लेने पाती ! पिताजी तो मुक्त है, इरावती बहिन उनकी सेवा कर लेगी। मैं तो इस दुःख व सुखी जीवन से छुट्टी पाने के लिये प्रस्तुत हूँ। [घबराये हुए एक भिक्षु का प्रवेश, बाहर कोलाहल] भिक्षु-भाग चाण्डाली ! तेरे कारण सब सत्यानाश हुआ। निकल ! क्या अब उठा नही जाता? चन्द्रलेखा-क्यों, बात क्या है ? क्या अब मै चली जाऊँ ? भिक्षु-हां, हां, चली जाओ। अभी जाओ। [दूसरी ओर से नरदेव और पकड़ा हुआ सत्यशील आता है] नरदेव-(चन्द्रलेखा को देखकर आप-ही-आप) आह ! ऐसा रंग तो मेरे रंगमहल मे भी नही। (प्रकट) क्यो सत्यशील, तुम्हारे सत्य और शील का यही न प्रमाण है ? सत्यशील-नरेश, यह प्रव्रज्या ग्रहण करने आयी है। चन्द्रलेखा-कभी नही ! यह झूठा है। मेरे बूढे पिता को मारता था, मैं छुड़ाने आयी। बस मुझे ही पकड कर इसने यहाँ बन्द कर रखा है । यह दुराचारी है नरनाथ ! नरदेव-(स्वगत) -रूप की सत्ता ही ऐसी है। कोन इससे बच सकता है ? (प्रकट)-किन्तु सत्यशील ! तुम तो अधम कीट हो, तुम्हारे लिये यही दण्ड है कि तुम लोगों का अस्तित्व पृथ्वी पर से उठा दिया जाय, नही तो तुम लोग बड़ा अन्याय फैलाओगे ! सेनापति ! सब विहारो को-राज्य भर मे जलवा दो। सेनापति-जो आज्ञा। नरदेव -इस मिथ्याशील को इसी कोठरी मे बन्द करो, और इस विहार में भी आग लगवा दो। अभी। सेनापति ---जैसी आज्ञा । [राजा और चन्द्रलेखा तथा अन्य लोग खड़े होकर आग लगते देखते हैं] [झपटते हुए प्रेमानन्द और विशाख का प्रवेश] प्रेमानन्द-राजन् क्रोध से न्याय नही होता। यह क्या अनर्थ कर रहे हो ? धर्म का तुम नाम उठा देना चाहते हो, मो भी उसी की दुहाई देकर ! अन्य विहार व भिक्षुओं ने क्या किया था ? १७६ : प्रसाद वाङ्मय