पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०५

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- " -यह चैत्य है। इसमें बुद्ध का शव-भस्म है । भस्म से ही यह रक्षित है। और भी कितने जीवों का भस्म इसी स्थान पर पहले भी रहा होगा। चीटे यहाँ भी शव को खा गये होंगे। वे ही शव होगे और फिर वही भस्म होगा, उसी में फिर चीटे होंगे, ऐसा सुन्दर परिणाम संसार का है ! अजी, अब तो मैं यहाँ से इस समय कहीं नहीं जाता। थोड़ी देर तक पड़ा-पड़ा चोरों को धोखा दूंगा, फिर देखा जायगा। इस अंधेरी रात में किसी गृही को क्यों दुःख दूं! [प्रेमानन्द एक ओर लेट जाता है भिक्षु का प्रवेश] भिक्षु-भयानक रात है-अभी तो सन्ध्या हुई है, किन्तु विभीषिका ने अपनी काली चादर अच्छी तरह तान ली है। मैं तो यहाँ नही ठहरूँगा, चाहे बधिक सिर भले काट ले, पर यह प्रतिक्षण भय से बीसों बार मरना तो नही अच्छा । कीड़े-मकोड़े से ? ऊहूँ ! वह विषेले ! जाने दो उनका ध्यान करना भी ठीक नही। फिर भाग चलूं । क्या चन्द्रलेखा आधी रात को आती है ? वह डरती नही, कामिनी है कि डाकिनी ! अच्छा बैठ जाऊं। [बैठता है। प्रेमानन्द नाक बजाता है जिसे सुनकर भिक्षु चौंक कर खड़ा हो जाता है]] भिक्षु-नमो तस्स""नमो""न न मैं नहीं भगवतो "भग जाता हूँ (कांपता है, शब्द बन्द होता है, भिक्षु फिर डरता हुआ बैठता है) प्रेमानन्द-(अलग खड़ा होकर)-देखू तो यह दुष्ट आज कौन कुकर्म करता है। [फिर छिप जाता है। भिक्षु कांपता हुआ सूत्र-पाठ करने लगता है। लोमड़ी दौड़ कर निकल जाती है, भिक्षु घबड़ा कर जप-चक्र फेंक उसे मारता है]] प्रेमानन्द-(स्वगत)-वाह, जप-चक्र तो सुदर्शन चक्र का काम दे रहा है ! देखू इसकी क्या अभिलाषा है। भिक्षु--(टूटा हुआ जप-चक्र लेकर बैठते हुए)-आज कैसी मूर्खता में हम लगे हैं-यहां तो भगवान् लोमड़ी के रूप मे आकर भाग जाते है और मुझे भी भगाना चाहते है; क्या करूं ? अभी वह नही आयी। जब अपने पहले दिनों में, किसी की आशा में मै अभिसार मे बैठता था, तब इससे भी बढी हुई भयानकता मेरा कुछ नहीं कर सकती थी; किन्तु अब वह वेग नही रहा, वह बल नही रहा ! नही तो क्या बताऊँ-(अकड़ता है) अच्छा कोई चिर" नही, देखा जायगा। अब तो बिना काम किये मैं टलनेवाला नही । (दूर से प्रकाश होता है)-अरे यह क्या -हाँ हाँ, वही चन्द्रलेखा आती है ! छिप जाऊँ ! (चैत्य की दूसरी ओर छिप जाता है) विशाख : १८९