पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०६

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[हाथ में छोटा-सा बोप लिये चन्द्रलेखा आती है और दीप चत्य के समीप रख कर नमस्कार करती है] चन्द्रलेखा-भगवन् ! अपनी कल्याण-कामना के लिए मैं यह दीप प्रति सन्ध्या को जलाती हूँ। करुणासिन्ध ! तुम कामना-विहीन हो, पर मैं अबला स्त्री और गृहस्थ, सुख की आशाओं से लदी हुई-फिर क्योंकर कामना न करूं? आप विश्व के उपकार में व्यस्त हैं, किन्तु मेरा यह नव गठित छोटा-सा विश्व मेरे ऊपर निर्भर करता है; चाहे यह मेरा अहंकार ही क्यों न हो, किन्तु मैं इसे त्यागने में असमर्थ हूँ ! मेरा वसन्तमय जीवन है । प्रभो ! इसमें पतझड़ न आने पावे ! मेरा कोमल हृदय छोटे सुख में सन्तुष्ट है, फिर बड़े सुख वाले उसमें क्यों व्याघात डालते है ! क्या उन्हें इतने में भी ईर्ष्या है जो संसार भर का सुख अपनाना चाहते हैं ? इसका क्या उपाय है ! हमारे सम्बल तुम्ही हो नाथ ! [गाती है] कर रहे हो नाथ, तुम जब, विश्व-मंगल-कामना, क्यों रहें चिन्तित हमी, क्यों दुःख का हो सामना ? क्षुद्र जीवन के लिये, क्यों कष्ट हम इतने सहें- कर्णधार ! सम्हाल कर, पतवार अपनी थामना । [नमस्कार करती है और फूल चढ़ाती है] --आज देर हो गई। नित्य यहां पर आती हूँ किन्तु आज-सा हृदय कभी भयभीत नही हुआ । घर तो समीप ही है, चलूँ ! [दीप बुझ जाता है-चन्द्रलेखा त्रस्त होती है । भिक्षु चैत्य की आड़ से बोलता है] "चन्द्रलेखा, तेरी धर्मवृत्ति देखकर मैं प्रमन्न हुआ।" [चन्द्रलेखा घुटना टेक देती है] चन्द्रलेवा-वडी कृपा, धन्य भाग्य ! चैत्य की आड़ से-किन्तु मैं तुझे सुख देना चाहता हूँ। चन्द्रलेखा-भगवान् की करुणा से मैं सुख पाऊँगी। चैत्य की आड़ से-तू नरदेव की रानी हो जा ! चन्द्रलेखा-(तमक कर) हैं-यहाँ यही भगवान् की वाणी है ? या आप मेरी ? परीक्षा लेना चाहते है । नहीं भगवन्; ऐसी आज्ञा न दीजिये । मैं सन्तुष्ट हूँ। चैत्य की आड़ से-तुझे होना पड़ेगा। चन्द्रलेखा-तब तू अवश्य इस चैत्य का कोई दुष्ट अपदेवता है । मैं जाती हूँ, आज से इस राख के टीले पर कभी नहीं आऊँगी ! १९० : प्रसाद वाङ्मय