पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०८

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[कटार निकालता है] महापिंगल-यथार्थ है श्रीमान्, उसे भीतर कीजिये; नही तो मेरी बुद्धि घूमने चली जायगी। अपना हृदय क्या वस्तु है उसकी आज्ञा लिये बिना सहस्रों के हृदय का रक्त यह कटार पी सकती है, और क्या प्रेम इसे कहते हैं। हाँ जी, कुछ ऐसा- वैसा नही, प्रेम भी तो राजाओं का है। [एक सुन्दर नाव पर रानी का प्रवेश, डाँड़ें चलाने वाली सखियाँ गा रही हैं] नदी नीर से भरी। संचित जल ले शैल का, हुई नदी में बाढ़ । मानस में एकत्र था, इधर प्रणय भी गाढ़ ॥ नेह नाव उतरा चली, लगते हलके डाँड़ । लगती है किस कूल पर, बस्ती है कि उजाड़ ॥ मेरी स्नेह की तरी। नरदेव-अहा ! महारानी भी आज इधर आ गयी। महापिंगल-(धीरे से) भागिये । महारानी-(नाव से उतर कर) महाराज ! दासी का आगमन कुछ कष्ट- दायक तो नही हुआ ? नरदेव-भला प्रिये, यह क्या कहती हो ! महापिंगल -सच बोलिये पृथ्वीनाथ ! महारानी-(हँसकर) क्या कहता है पिंगल ? महापिंगल-जंगल मे मगल। महारानी-प्राणनाथ ! आज कितने दिनों पर दर्शन हुए। नरदेव '-क्या मैं कही बाहर गया था? महारानो-मैं तो अपने को दूर ही समझती हूँ। महापिंगल-यह रेखागणित का सिद्धान्त तो मेरी समझ में न आया । महारानो-दूर जब हो गया कही मन से क्या हुआ तन लगा रहे तन से । स्वप्न में सैर सैकड़ों योजन कर चुका मन, न छू गया तन से । नरदेव-(लज्जित होकर) प्रिये, यह क्या कह रही हो ! महारानी --नाथ | कैमा शोवनीय प्रमंग है कि मै ऐसा कहूँ- मधुपान कर चुके मधुप, सुमन मुरझाये, शीतल मलयानिल गया, कौन सिचवाये ? पत्ते नीरम हो गये सुखा कर डाली, चलती उपवन में लूह कहां हरियाली ? १९२: प्रसाद वाङ्मय