पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०९

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न्याय नरदेव-(हाथ पकड़ कर) प्रिये, तुमको ऐसी बातें न कहनी चाहिये । महारानी-वही तो मैं चाहती थी, किन्तु प्राणनाथ की कल्याण-कामना मुझे मुखर बनाती है। नरदेव -क्या मुझसे तुम विशेष बुद्धिमती हो ? महारानी यह मैंने कब कहा ? पर राज्य की व्यवस्था देखिये, कैसी शोचनीय है ! आपकी मानसिक अवस्था तो और भी... नरदेव -बस जाओ, इन बातों को मै सुनना नही चाहता। जी बहलाने के लिये कुछ दिन उपवन में चला आया, यही क्या बड़ा भागे अन्याय हुआ ? [बौद्ध भिक्षु को लिये प्रहरियों का प्रवेश] भिक्षु-न्याय मैने क्या किया है, हाय हाय !! नरदेव -क्या बात है ? प्रहरी महापिंगलजी ने कहा कि यह भिक्षु राजाज्ञा से कारागार में रक्खा जाय । यह वहां नही रहता, अपना सिर पटक कर प्राण देना चाहता है । महापिंगल-तो तुम लोगों को इस मुड़े हुए सिर के लिए इतनी चिन्ता क्यों है; ले जाआ इसे । महारानी-भिक्षु का क्या अपराध है ? नरदेव-मैं तो नही जानता, क्यों जी क्या बात है ? भिक्षु-महापिंगल ने मुझे धमकाया कि यदि तुम उस पुराने चैत्य पर जाकर चन्द्रलेखा को डरा करके महाराज से मिलने पर न विवश करोगे तुम शूली पर चढ़ाये जाओगे। [नरदेव और रानी महापिंगल को देखती हैं, महापिंगल भागना चाहता है] महारानी -सावधान होकर खड़े रहो । कहो, क्या तुमने महाराज के आदेश से ही यह काम कराया था ? नरदेव-मैने कब इसे कहा" महापिंगल-महाराज, जब आप इतने व्याकुल हुए कि हाँ तब मैंने ऐसा प्रबन्ध किया था, जो है सो- नरदेव-तुम झूठे हो। महारानी-प्रहरियों, इस भिक्षु को छोड़ दो और महापिंगल को बाँध लो। [प्रहरी आगे बढ़ते हैं] महापिंगल-दुहाई ! चन्द्रलेखा मुझे नरी प्यारी थी महाराज ! आप बचाइये, नही तो फिर... नरदेव-प्रिये ! उसे जाने दो, वह मूर्ख है । विशाख : १९३