पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१०

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महारानी-महाराज ! आप देश के राजा हैं और हमारे पति हैं, क्या इसी तरह राज्य रहेगा? क्या अन्याय का धड़ा नही फूटेगा? क्या आपको इसका प्रतिफल नही भोगना पड़ेगा ? मान जाइये । ऐसे कुटिल सभासदों का संग छोड़िये । इसे दण्ड पाने दीजिये। महापिंगल-दुहाई महाराज ! चन्द्रलेखा के डर से यह मुझे मरवाना चाहती हैं, न्यायवाय कुछ नहीं। नरदेव-(स्वगत) आह चन्द्रलेखा ! (प्रहरियों से) छोडो जी, जाओ तुम लोग ! महापिगल -बडी दया हुई । इसी रानी की सौतिया-डाह से तो वह झिझकती है। महारानी-चुप नरक के कीड़े ! तेरी जीभ बिजली से भी चपल है । नरदेव--रानी ! तुम अब जाओ, अपने महल मे जाओ। महारानी--आपने कुपथ पर पैर रक्खा है और मै आपको बचा न सकी। परिणाम बडा ही भयंकर होने वाला है। वह मैं नहीं देखना चाहती। किन्तु, कहे जाती हूँ कि अन्याय का राज्य बाल की भीत है। अब मैं रह कर क्या करूंगी, मैं चली, किन्तु सावधान ! (नदी में कूद पड़ती है) दृश्या न्त र द्वितीय दृश्य [विशाख और चन्द्रलेखा प्रकोष्ठ में] विशाल-प्रिये, क्या किया जाय ? चन्द्रलेखा-भगवान ही महाय है । धैर्य धारण करो। विशाख-कामान्ध नरपति से रक्षा कैसे होगी? चलो प्रिये ! हिमवान की बहुत-मी सुरक्षित गुफाये है, प्रकृति के आश्रय मे वही सुख से रहेगे । चन्द्रलेखा--मे तो अनुचरी हूँ। किन्तु अब समय कहाँ है, पिताजी को तो समाचार भेज चुकी हूँ। विशाख- हाँ, जो विपत्ति में आश्रय है, जो परित्राण है, वही यदि विभीषिकामयी कृत्या का रूप धारण करे तो फिर क्या उपाय है ! राजा के पास प्रजा न्याय कराने के लिये जाती है, किन्तु जब वही अन्याय पर आरूढ़ है तब क्या किया जाय ! (कुछ सोचता है)-कोई चिन्ता नही प्रिये ! डरो मत । [महापिंगल का प्रवेश] महापिंगल--विशाख ! मै तुम्हारी भलाई के लिये कुछ कहना चाहता हूँ। १९४: प्रसाद वाङ्मय