पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१२

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दूसरा नाग-चन्द्रलेखा का उद्धार करना ही होगा। तीसरा नाग-चाहे प्राण भले ही जायें, इससे पीछे न हटूंगा, जो देवी की आज्ञा हो। चौथा नाग-तो मैं जाता हूँ और भाइयों को बुलाता हूँ। रमणी-शीघ्र जाओ। [प्रेमानन्द का प्रवेश] प्रेमानन्द-किन्तु क्या अन्याय का प्रतिफल अन्याय है ? क्या राजा मनुष्य नहीं है ? रक्त-मांस का उसका भी शरीर है, फिर क्या उसे भ्रम नही हो सकता ? रमणी-भ्रम नही, यह स्पष्ट समझ कर किया गया, अन्याय है। प्रेमानन्द रमणी ! अग्नि मे घी न डालो ! समझ से काम लो। रमणी-तो हम लोग चुपचाप बैठे ? इरावती-और, बहिन चन्द्रलेखा को न खोजें ? प्रेमानन्द-देश की शान्ति भंग करना और निरपराधों को दुख देना-इसमें तुम्हे क्या मिलेगा ? देखो, सावधान हो; इस उत्तेजना राक्षमी के पीछे न पड़ो-एक अपराध के लिए लाखों को दण्ड न दो ! हरी-भरी भूमि के लिये पत्थर वाले बादल न बनो! अन्यथा पछताओगे। सुश्रवा - तब क्या करें? प्रेमानन्द --मत्य को मामने रक्खो, जात्मबल पर भरोसा रक्ग्वो, न्याय की मांग कगे। सव -अच्छा तो पहो यही किया जाय । दृ श्या न्त र तृतीय दृश्य [तरला का गृह] भिक्षु-(आप-ही-आप) - जव भिक्षु होने होने पर भी मांगे भीख न मिली; तो हम क्या करे ? ऐ बोनो ! आकाश की ग्याही को चन्द्रमा की चांदनी से कब तक घोया करें? बिल्ली कब तक छीछटों से अपना जी चुरावे । गडबड़झाला न करें तो क्या करें। भगवान तुम चाहे कुछ हो, पर संकट के समय कभी काम आ जाते हो, ऐं बोलो, फिर क्यों न तुम्हे मान लेने के लिये जी चाहे । लेकिन हां, सब उसी समय तक; फिर, तुम हो-हुआ करो। अरे बाप रे !-(काँपता है)-जव चन्द्रलेखा का पति तलवार निकाल कर- ओह ! नही, वच गये--बच; अजी हां, वह भी दिल्ली की राह काटने वाली सायत , १९६ : प्रसाद वाङ्मय