पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१७

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नरदेव तुम लोग शान्ति के साथ घर लौट जाओ। जनता-तो हमें चन्द्रलेखा और विशाख मिल जायें। नरदेव-कभी नहीं। अपराधी इस तरह नहीं मुक्त हो सकता। नियम यों नहीं भंग किये जा सकते। जनता-तो हम भी नहीं टलेंगे ! [प्रेमानन्द का प्रवेश] प्रेमानन्द--राजन्, सावधान ! यह क्या ? बच्चे जब हठ करें तो क्या पिता भी रोष से उन्हीं का अनुकरण करे ? क्या राजा प्रजा का पिता नहीं है जो एक बार उसका मचलना नहीं सम्हाल सकता ? नरदेव - यह मठ नही है भिक्षु ! तुम्हें यहां बोलने का अधिकार नहीं है। प्रेमानन्द--राजन् ! सुविचार कीजिये । नरदेव-महादण्डनायक ! दण्डनायक- क्या आज्ञा है महाराज। नरदेव टन लोगों को बाहर निकाल दो और चन्द्रलेखा तथा विशाख को अभी शूली न दी जावे। प्रेमानन्द-उन्हें छोड़ दीजिये । राजन्, प्रजा को सुख दीजिये । क्या आप ही ने इसी एक स्त्री पर अत्यागार होने के कारण मैकडों विहार नहीं जलवाये ? क्या वह न्याय दूसरों के लिए ही था ? भगवान् की मर्वहारिणी योगमाया की यह उज्ज्वल सृष्टि है। नरनाथ ! वह तुम्हारा न्याय नहीं था, न्याय का अभिमान मात्र था। आज तुम वही पाप कर रहे हो ! कैसा रहस्यमय प्रतिघात है। इसी से कहता हूं कि भगवान् की वरुणा ही सत्रको न्याय देती है । तुम मान जाओ। नरदेव-चले जाओ संन्यामी, तुम क्यों व्यर्थ अड़ते हो हो ? यह नहीं हो सकता । निकालो जी, इन्हें बाहर करो। सबनाग - तब हम लोगों पर कोई उत्तरदायित्व नहीं, और, बिना विशाख और चन्द्रलेखा को लिये हम नही जायेंगे। नरदेव-कड़क कर)-मारो इन दुष्टों को। [सैनिक प्रहार करते हैं। 'आग आग !'-का हल्ला। नरदेव घबरा कर भीतर भागता है। चन्द्रलेखा और विशाख को लेकर नाग लोग भागते हैं। आग फैल जाती है। अग्नि में से घुसकर प्रेमानन्द राजा को उठा लाता है और पीठ पर लादकर चला जाता] दृश्या न्त र - विशाख: २०१