पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१८

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-सब लोग। पंचम दृश्य [कानन में इरावती का कुटीर] इरावती-(प्रवेश करके)-क्रोध ! प्रतिहिमा और भयानक रक्तपात ! ! यह क्या सुन रही हूँ भगवन् तुमने चिरकाल से मनुष्य को किस मायाजाल में उलझाया है ! वह अपनी पाशववृत्ति के वशीभूत होकर उपद्रव कर ही बैठता है- समझदारी, मारा ज्ञान, समस्त क्रमागत उच्च सिद्धान्त बुल्लों के समान विलीन हो जाते हैं; और उठने लगती हैं भयानक तरंगें ! चन्द्रलेखा को लेकर इतना बड़ा उपद्रव हो जायगा, कौन जानता था । अहा स्नह, वासल्य, सौहार्द, करुणा और दया सब विलीन हो गये-केवल क्रूरता, प्रतिहिंसा का आतंक रह गया। इतना दुःखपूर्ण संसार क्यों बनाया मेरे देव ! यह तुम्हारी ही सृष्टि है-करुणासिन्धु ! मेरे नाथ ! [प्रार्थना करती है] दीन दुखी न रहे कोई, सुखी हों सब देश समृद्धि प्रपूरित हो-जनता नीरोग, कूटनीति टूटे जग मे-सबमे सहयोग भूप प्रजा समदर्शी हों-तजकर सब ढोंग । दीन दुखी न रहे. [अचेत नरदेव को लिए प्रेमानन्द का प्रवेश] इरावती-(देख कर)-अहा, घायल है कोई ! और आप महात्मा ! इन्हें ढोकर ले आ रहे हैं तो क्या मैं भी कोई सेवा कर सकती हूँ ? प्रेमानन्द-(नरदेव को लिटाते हुए)-सेवा करने का सभी को अधिकार है देवि ! इसे थोड़ा-सा दूध चाहिये । [इरावती जाती है, प्रेमानन्द किसी जड़ी का रस नरदेव के मुंह में टपकाता है वह कुछ चैतन्य होता है । इरावती दूध लाती है] प्रेमानन्द–अभी तुम्हें बल नहीं है। लो, थोड़ा-सा दूध पी लो (इरावती दूध पिलाती है) नरदेव-(स्वस्थ होकर)-देवदूत ! मेरे अपराध क्षमा कीजिये। प्रेमानन्द-अपराध ! अपराध तो नरदेव ! एक भी क्षमा नहीं किये जाते और उसी अवस्था में अपराधों से अच्छा फल होता होता है ! सज्जनों के लिए वही उदाहरण हो जाता है। किन्तु तुम्हें तो पूर्ण दण्ड मिला और अब तुम तपाये हुए २०२: प्रसाद वाङ्मय