पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१९

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? सोने की तरह हो गये। अभी तुम्हारी व्यथायें शान्तं नहीं हुई, इसलिए तुम लेटो। पोड़ी-सी जड़ी और लाकर तुम्हारे अंगों पर मल ढूं, जिससे तुम पूर्ण स्वस्थ हो जाओ। (जाता है) नरदेव-हाय हाय, मैंने क्या किया-एक पिशाच-प्रस्त मनुष्य की तरह मैंने प्रमाद की धारा बहा दी ! मैंने सोचा था कि नदी को अपने बाहुबल से सन्तरण कर जाऊँगा, पर मैं स्वयं बह गया। सत्य है, परमात्मा की सुन्दर सृष्टि को, व्यक्तिगत मानापमान, द्वेष और हिंसा से किसी को भी आलोड़ित करने का अधिकार नहीं है। प्राय: देखा जाता है कि दूसरों के दोष दिखाने वाले घटनाचक्र से जब स्वयं किसी अन्याय को करने लगते हैं तो पशु से भी भयानक हो जाते हैं । न्याय और स्वतन्त्रता के बदले 'घोर आवश्यक' बताने वाले परतन्त्रता के बन्धन का पाश अपने हाथ में लेकर मानवममाज के सामने प्रकट होते हैं। इसीलिये प्रकृति के दास मनुष्य को- आत्मसंयम, आत्मशासन की पहली आवश्यकता है। नही तो वह प्रमादवश अनर्थ ही करता है। प्रेमानन्द-(प्रवेश करके)-ठीक है नरदेव ! यह विचार तुम्हारा ठीक है। प्रमाद, 7. द्वेग आदि स्वप्न है, अलीक है। किन्तु क्या इसे पहले भी विचार किया था क्या मानवता का परम उद्देश्य तुम्हारी अविचार-वन्या में नही बह गया था ? विचारो, सोचो, फिर राजा होना चाहते हो? नरदेव -नही भगवन् ! अब नही। उस प्रमादी मुकुट को मैं स्वीकार नहीं करूंगा। हृदय मे असीम घृणा है। उसे निकालने दीजिये । गुरुदेव, मैं आपकी शरण हूँ; मुझे फिर से शान्ति दीजिये। प्रेमानन्द-गरदेव ! तुम आज सच्चे राजा हुए। तुम्हारे हृदय पर आज ही तुम्हारा अधिकार हुआ। तुम्हारा स्वराज्य तुम्हे मिला। हृदय राज्य पर जो अधिकार नही कर सका, जो उसमे पूर्ण शान्ति न ला सका, उसका शासन करना एक ढोंग करना है । भगवान् तुम्हारा सार्वत्रिक कल्याण करेंगे। [चन्द्रलेखा का एक बालक को गोद में लिए हुए आना] चन्द्रलेखा-महात्मन् ! यह वालक राजमन्दिर में मिला है। उत्तेजित नागों ने इसे राजकुमार समझ कर मार डालना चाहा। पर मैं किसी तरह इसे बचा लायी। नरदेव- (देखकर)-भगवान्, तू धन्य है, इस प्रकाण्ड दावाग्नि में नन्ही-सी दूब तेरी शीतलता मे बची रही। मेरे प्यारे बच्चे। प्रेमानन्द-मूर्तिमती करुणे ! तुम्हारा जीवन सफल हो ! स्त्री जाति का सुन्दर उदाहरण तुमने दिखाया । नरदेव को मार कर भी तुमने जिलाया। चन्द्रलेखा-अरे नरदेव""मै तो पहचान भी न सकी" नरदेव-देवि, क्षमा हो । अधम के अपराध क्षमा हों। विशाल : २०३