पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२२०

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[बच्चे को गोद में लेता है] चन्द्रलेखा-राजन्, रूप की ज्वाला ने तुम्हें दग्ध कर दिया, कामना ने तुम्हें कलुषित कर दिया, क्या मेरा कुछ इसमें सहयोग था ! नहीं; इस सोने के रंग ने तुम्हारी आँखों में कमल रोग उत्पन्न कर दिया । तुम्हें सर्वत्र चम्पकवर्ण दिखलाई देने लगा। पर क्या यह रंग ठहरेगा। किन्तु इस दुखद घटना का इतिहास साक्षी रहेगा, तुम्हारी दुर्बलता की घोषणा किया करेगा। परमात्मा तुम्हें अब भी शान्ति दे ! विशाख-(प्रवेश करके)-यह क्या, तुम नरदेव हो ? अभी जीवित हो ! प्रेमानन्द-विशाख, वत्स ! प्रतिहिंसा पाशववृत्ति है। नरदेव अब संन्यासी हो गया है। उसे राष्ट्र से कोई काम नहीं। यदि मेरा कहा मानो, तो तुम अपने सज्जनता के हृदय से इन्हें क्षमा कर दो, और इस बालक को ले जाकर प्रजा के अनुकूल राजा बनने की शिक्षा दो। तुम्हें भी कर्म करने के बाद मेरे ही पथ पर शान्ति पाने के लिए आना होगा। विशाख-जैसी आज्ञा। नरदेव-भाई विशाख, मुझे क्षमा करना । विशाख-भगवान् क्षमा करें। नरदेव-शान्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये । प्रेमानन्द-प्रार्थना करो, तुम्हें शान्ति मिलेगी। नरदेव-(हाथ जोड़ कर बैठकर) हृदय के कोने कोने से स्वर उठता है कोमल मध्यम, कभी तीव्र होकर भी पंचम, मन के रोने से । इन्दु स्तब्ध होकर अविचल है; भाव नही कुछ वह निर्मल है हृदय न होने से। उसे देख सन्तोष न होता, वह मेघों में छिप कर सोता, तेजस् खोने से। तुम आओ तब अच्छा होगा, हृदय भाव कुछ सच्चा होगा, तेरे टोने से। किन्तु हुआ अब लज्जित हूँ मैं कर्म फलों से सज्जित हूँ मैं, उनके बोने से। आवृत हो अतीत सब मेरा, तूने देखा, सब कुछ मेरा, पर्दा होने से। [यवनिका]] २०४:प्रसाद वाङ्मय