पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२२९

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अजातशत्रु प्रथम अंक प्रथम दृश्य [प्रकोष्ठ में अजातशत्रु, पद्मावती, समुद्रदत्त और लुब्धक] अजातशत्रु-क्यों रे लुब्धक ! आज तू मृगशा नहीं लाया ! मेरा चित्रक अब किससे खेलेगा? समुद्रदत्त-कुमार ! यह बड़ा दुष्ट हो गया है। आज कई दिनों से पह मेरी बात सुनता ही नहीं है। लुब्धक-कुमार ! हम तो आज्ञाकारी अनुचर हैं । आज मैंने जब एक मृगशावक को पकड़ा, तब उसकी माता ने ऐसी करुणा भरी दृष्टि से मेरी और देखा कि उसे छोड़ ही देते बना। अपराध क्षमा हो ! अजातशत्रु-हाँ, तो फिर मैं तुम्हारी चमड़ी उधेड़ता हूँ। समुद्र ! ला तो कोड़ा! समुद्रदत्त-(कोड़ा लाकर देता है)-लीजिये । इसकी अच्छी पूजा कीजिये। पद्मावती-(कोड़ा पकड़ कर)-भाई कुणीक ! तुम इतने दिनों में ही बड़े निष्ठुर हो गये। भला उसे क्यों मारते हो ? अजातशत्रु-उसने मेरी आज्ञा क्यों नही मानी? पद्मावती-उसे मैंने ही मना किया था, उसका क्या अपराध समुद्रदत्त-(धीरे से)-तभी तो उसको आज-कल गर्व हो गया है। किसी की बात नहीं सुनता। अजातशत्रु-तो इस प्रकार तुम उसे मेरा अपमान करना सिखाती हो ? पद्मावती-यह मेरा कर्तव्य है कि तुमको अभिशापों से बचाऊँ और अच्छी बातें सिखाऊँ। जा रे लुब्धक, जा, चला जा। कुमार जब मृगया खेलने जायें, तो उनकी सेवा करना। निरीह जीवों को पकड़ कर निर्दयता सिखाने में सहायक न होना। अजातशत्रु-यह तुम्हारी बढाबढ़ी में सहन नहीं कर सकता। पद्मावती-मानवी सृष्टि करुणा के लिए है, यों तो क्रुरता के निदर्शन हिंस्र पशु- जगत में क्या कम हैं ? १४ अजातशत्रु : २०९