पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२४६

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विरुद्धक-पिताजी ! पदि क्षमा हो, तो मैं यह कहने में संकोच न करूंगा कि युवराज को राज्य संचालन की शिक्षा देना महाराज का ही कर्तव्य है । प्रसेनजित्-(उत्तेजित होकर)-और आज तुम दूसरे शब्दों मे उसी शिक्षा को पाने का उद्योग कर रहे हो ! क्या राज्याधिकार ऐसी प्रलोभन की वस्तु है कि कर्तव्य और पितृभक्ति एक बार ही भुला दी जाय ? विरुद्धक-पुत्र यदि पिता से अपना अधिकार मांगे, तो उसमें दोष ही क्या ? प्रसेनजित्-(और भी उत्तेजित होकर) -तब तू अवश्य ही नीच रक्त का मिश्रण है। उस दिन, जब तेरी ननिहाल में तेरे अपमानित होने की बात मैने सुनी थी, मुझे विश्वास नहीं हुआ। अब मुझे विश्वास हो गया कि शाक्यों के कथनानुसार तेरी माता अवश्य ही दासी-पुत्री है। नही तो तू इस पवित्र कोसल की विश्व-विश्रुत गाथा पर पानी फेर कर अपने पिता के साथ उत्तर-प्रत्युत्तर न करता। क्या इसी कोसल मे रामचन्द्र और दशरथ के सदृश पुत्र और पिता अपना उदाहरण नही छोड़ गये है ? सुदत्त-दयानिधे ! बालक का अपराध मार्जनीय है । विरुद्धक-चुप रहो सुदत्त ! पिता कहे और पुत्र उसे मुने। तुम चाटुकारिता करके मुझे अपमानित न करो। प्रसेनजित् -अपमान ! पिता से पुत्र का अपमान ! क्या यह विद्रोही युवक- हृदय, जो नीच रक्त से कलुषित है, युवराज होने के योग्य है ? क्या भेड़िये की तरह भयानक ऐसी दुराचारी सन्तान अपने माता-पिता का ही वध न करेगी ! अमात्य ! अमात्य-आज्ञा पृथ्वीनाथ ! प्रसेनजित्-(स्वगत) अभी से इसका गर्व तोड देना चाहिये । -(प्रकट) आज से यह निर्भीक किन्तु अशिष्ट-बालक अपने युवराजपद से वञ्चित किया गया। और, इसकी माता का राजमहिषी का-सा मम्मान नही होगा --केवल जीविका- निर्वाह के लिए उसे राजकोप से व्यय मिला करेगा। विरुद्धक- पिताजी, मैं न्याय चाहता हूँ। प्रसेनजित्-अबोध, तू पिता से न्याय चाहता है | यदि पक्ष निर्बल है और पुत्र अपराधी है, तो किस पिता ने पुत्र के लिए न्याय किया है ? परन्तु मैं यहां पिता नही राजा हूँ। तेरा बड़प्पन और महत्वाकांक्षा से पूर्ण हृदय अच्छी तरह कुचल दिया जायगा-बस चला जा। [विरुद्धक सिर झुकाकर जाता है] अमात्य--यदि अपराध क्षमा हो, तो कुछ प्रार्थना करूं। यह न्याय नहीं है। कोसल के राजदण्ड ने कभी ऐसी व्यवस्था नहीं दी। किसी दूसरे के पुत्र का कलंकित २२६ . प्रसाद वाङ्मय